आजकल “लोन” (loan) लेना बड़ा फैशन है.
या यों कहें कि इसके बिना चलता नहीं है.
अरे! प्रॉपर्टी खुद की हो तो “समय आने पर” उस पर भी “लोन”
खुद ना भी ले तो दूसरे “प्रोत्साहन” (encourage) करते हैं.
खुद “बैंक वाले ” ही आ जाते हैं – लोन देने के लिए !
अब रोज रोज को किसी को “ना” करना “अच्छी” बात नहीं है
इसलिए लोन लेने में हर्ज़ ही क्या है, सोचकर “लोन” ले लिए जाता है.
जैन धर्म की भाषा में इसे “आश्रव” कहेंगे कर्म के दृष्टिकोण से.
(शौक से होटल जाने वाले, शौक से आलू-प्याज खाने वाले और शौक से रात्रि भोजन करने वाले, ये सभी इस श्रेणी में आ जाते हैं).
आश्रव यानि कर्मों को आने की खुली छूट देना.
फिर ब्याज भरना, किश्त भरना. ना भरने पर पेनल्टी भरना.
(कर्म का फल भी तो अभी का अभी नहीं मिलता
-अमुक समय के बाद ही मिलता है – परन्तु कई गुना बढ़कर)!
“हाउसिंग लोन” लेने वाले 15 साल का लोन लेते हैं
और तीन ही साल में भर भर कर परेशान हो जाते हैं
क्योंकि “मूल रकम” कम होती ही नहीं है!
फिर एक दिन आता है – प्रतिज्ञा की जाती है की अब लोन भरकर ही “छुटकारा” लेना है!
ऐसे कर्म की भाषा में “संवर” समझें. ( कर्म की दूसरी स्टेज )
यानि “बंद” करना – कर्मों का दरवाजा.
अब कर्म की तीसरी स्टेज.
“निर्जरा.”
जैसे रोग खत्म होने के बाद भी कमजोरी जाती नहीं है
यानि रोग के प्रभाव से अभी मुक्ति मिली नहीं है
“संचित” कर्म को “भस्म” करना – तप से.
दुर्भाग्य से “तप” का अर्थ मात्र “उपवास” इत्यादि से लिया जाता है.
तपस्या करने वाले “जप” करते हैं
पर “अपनी आत्मा” का ध्यान करना उन्हें नहीं सिखाया जा रहा.
“ध्यान” से कर्म जितने जल्दी खपते हैं,
उतने और किसी भी तप से नहीं खपते.
हाँ, तप के बल पर “ध्यान” की क्वालिटी बहुत ऊँची हो जाती है.
मूल प्रश्न है:
“तप” किसलिए किया जा रहा है?
उत्तर “तप” करने वालों को “स्वयं” देना है.
मात्र “गुरुओं” की बात सुनना नहीं है.
विशेष: एक जैनी को धर्म क्षेत्र में पैसा लगाने का अधिकार तब तक नहीं है जब तक वो खुद ऋणी हों. जरूरत आने पर लोन सिर्फ साधर्मिक बंधू से ही लिया जाए पर मन में इस बात का अफ़सोस रहे कि कब लोन चुकाऊं और कब “मेरा धन” सात क्षेत्र में उपयोग करूँ. इस भावना को बलवती करें ना कि “लोन” लेने की भावना को. ज्यादातर लोगों को लोन ना लेने की बात हास्यास्पद लग सकती है क्योंकि आज कोई बिरला ही है जिसने लोन ना ले रखा हो. ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें: श्राद्ध विधि प्रकरण : श्री रत्नशेखर सूरिजी (प्राप्ति स्थान : सरस्वती पुस्तक भण्डार, रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद-१ -जैन ग्रन्थ प्रकाशन में ये संस्था अव्वल है).
अन्य बातें “जैनों की समृद्धि के रहस्य” नामक पुस्तक में बतायी जाएंगी. पब्लिशर: jainmantras.com