प्रश्न 1 :
क्या मात्र “नमस्कार” करने से ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं?
उत्तर:
१. “अपने” “राजा” को “नमस्कार” करने वाली प्रजा उसकी “शरण” स्वीकार करती है.
और प्रतिफल में “प्रजा” की “रक्षा” का “दायित्व” राजा ने लिया है.
इसी प्रकार “पांच परमेष्ठी” की “शरण” में आने वालों की “किये गए पापों” से रक्षा हो जाती है.
प्रश्न 2 :
यदि प्रजा को अपनी “रक्षा” का भय नहीं है,
तो भी क्या वो राजा को स्वीकार करेगी?
उत्तर:
यदि कोई किसी पर किसी भी वस्तु के लिए “आश्रित” नहीं है,
तो वो उसकी “शरण” स्वीकार नहीं करेगा.
प्रश्न 3 :
“भय” किसको नहीं होता है?
उत्तर:
या तो “बलशाली” को भय नहीं होता है
या फिर “अज्ञानी” को भय नहीं होता है.
परन्तु “अज्ञानी” को भी “भय” तब होता है,
जब उसे अपने “अज्ञान” का “ज्ञान” हो जाता है.
चिंतन:
मात्र “अज्ञान” का “ज्ञान” हो जाने से “ज्ञान” प्राप्त नहीं होता.
यदि होता तो हम सभी “अज्ञानियों” को अभी तक ज्ञान प्राप्त हो चुका होता. 🙂
परन्तु हम में से जो भी “बुद्धिशाली” हैं,
वो इस बात को स्वीकार नहीं करते कि
वो “अज्ञानी” हैं,
कम से कम “धर्म” क्या है, उसके विषय में!
“घोर अज्ञानता”
जब मनुष्य ये समझे कि आज के “युग” में
“धर्म” की “बातें” करना “व्यर्थ हैं.”
प्रश्न 4 :
क्या “अज्ञानता” पाप है?
उत्तर:
पहलें स्वयं से पूछें : क्या “अज्ञानता” पुण्य के उदय से आई है? 🙂
उत्तर अपने आप प्रकट हो जाएगा कि
“अज्ञानता” पाप के उदय से ही आई है.
ये तो हुई पूर्व भूमिका – नवकार के बारे में.
(नवकार के बारे में पूरा लिखना और बोलना
“असंभव” है क्योंकि जिसको “अनुभव” है भी
वो भी अपने “पूरे अनुभव” को लिख कर या बोल कर नहीं बता पाता).
आगे के लिए पढ़ें:
नवकार चिंतन : भाग 2
फोटो:
श्री आदिनाथ भगवान