प्रश्न 7 :
नवकार से सारे कार्य सिद्ध होते हैं, ये कहा जाता है. पर “पुण्य” के बिना ये कैसे संभव है? नवकार में तो “पाप” नष्ट होने की बात कही गयी है, “पुण्य” की बात तो कही नहीं गयी है.
उत्तर:
“अरिहंत” का नाम लेते ही “पुण्य” प्रकट होने लगता है.
जैसे किसी “पहचान वाले” धनी व्यक्ति के साथ टूर पर जाते हो तो सारी सुविधाएं स्वतः ही मिलती है, वैसे ही “अरिहंत” की “वास्तव” में “शरण” आने वाले के सारे दू:ख दूर भाग जाते हैं.
“दुःख” दूर तभी होते हैं जब “पुण्य” उदय में आता है. वर्ना दुःख दूर होंगे ही नहीं.
प्रश्न 8 :
“अरिहंत” के “पुण्य” से हमारा क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
“पिता के कमाए “धन” से “पुत्र” का जो सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध हमारा “तीर्थंकरों” से है.
(ये बात अच्छी तरह से “मन” में “बिठा” लो).
“पुत्र” को वारिस के रूप में पिता का कमाया हुआ धन मिलता ही है.
परन्तु यदि “पिता” से सम्बन्ध ही नहीं है, तो फिर “ढेला” भी नहीं मिलेगा.
Check Point:
क्या अब आपको लगता है कि “तीर्थंकरों” से आपका “गहरा” सम्बन्ध है?
प्रश्न 9 :
तीर्थंकरों के कारण हमारे पुण्य का उदय हुआ है, इसकी कोई “प्रत्यक्ष निशानी” है?
उत्तर:
आपने “जैन कुल” में “जन्म” लिया, किसके कारण?
पूर्व जन्म में “तीर्थंकरों” से सम्बन्ध रहा है, उसके कारण!
पूर्व जन्म की बात छोडो.
आपका “भाई” आपके “जैसा” दिखता है, किसके कारण?
(इस बात का उत्तर आप स्वयं देवें).
प्रश्न 10 :
परन्तु आजकल तो जैनी “तीर्थंकरों” को इतना नहीं पूजते, मात्र “नाम” के लिए “अर्हं” बोलते हैं. सारे “मन्दिरमार्गी” भी रोज दर्शन-पूजन नहीं करते.
उत्तर:
उन्हें जन्म से “व्यवस्था” तो वो ही मिली है, अब वो तीर्थंकरों से “सम्बन्ध” ना रखें, तो उनकी वो जानें.
तीर्थंकरों से सम्बन्ध “नाम मात्र” का (कि हम जैनी हैं) रखें, तो उनको “लाभ” भी नहीं के बराबर मिलेगा.
Point to Think:
जरा विचार करें कि तीर्थंकरों से सम्बन्ध कैसा जोड़ा जा सकता है.
गुरु ने बताया ही होगा.
यदि नहीं, तो वो गुरु काम के नहीं हैं.
महाप्रभाविक श्री शांति गुरु (आबू वाले, जिन्हें “सरस्वती” साक्षात थीं) ने भी अपने गुरु को छोड़ दिया और “दूसरा” गुरु किया जब जाना कि “पहला” गुरु उनके “काम” का नहीं था.
गुरु ढूंढने के लिए शास्त्रों ने १२ वर्ष का समय दिया है.
फोटो:
श्री आदिनाथ भगवान, खम्भात
(ये प्रतिमाजी उसी संगमरमर से बनी है
जिससे पालिताना के मूलनायक की बनी है).