1. तीर्थंकर का मतलब
जो “तीर्थ” की स्थापना करते हैं.
2. “तीर्थ” का मतलब : जो तारे.
3. तरने का मतलब : मोक्ष प्राप्त होना.
4. “मोक्ष” प्राप्त होने का मतलब:
गर्मी पड़े या सर्दी, उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता.
दुःख का पता नहीं और सुख में ख़ुशी नहीं.
मतलब जब “जीव” सिद्ध-शीला पर पहुँच जाता है
फिर दुनिया की सारी जानकारी होते हुए भी
उसको उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता.
वो स्वयं “चेतन” है, इसलिए “सुख-दुःख” के रहस्यों को जानता है.
ये “उसके” नहीं हैं,
जो “संसार” हैं, उसके हैं.
ये सारे “रहस्य” प्रकट किये हैं
अरिहंतों ने,
“संपूर्ण” ज्ञान : केवल ज्ञान
प्राप्त होने के बाद!
और तो और :
अरिहंत का बीजाक्षर “अर्हं” है,
वो भी उन्होंने ही बताया है.
“बीजाक्षर” का मतलब :
जिस के “जप” से “सिद्धि” रुपी
“बीज” को “सींचा” जाता है
तो पेड़ बनता है.
और पेड़ पर “इच्छित फल” प्राप्त होते हैं.
अरिहंत का बीजाक्षर “अर्हं” है.
सिर्फ “अर्हं” बोलने से उन्हें नमस्कार नहीं होता.
(यद्यपि “अरिहंत” शब्द के लगातार रटने से
“आत्मा” “अरिहंत” की शरण में आ जाती है).
जैसे कि मात्र “महावीर” बोलने से
भगवान महावीर को नमस्कार नहीं होता.
अरिहंतों को नमस्कार करने के लिए
“नमो अरिहंताणं” या “ॐ अर्हं नमः” बोलना होगा.
(इसका विस्तृत विश्लेषण है-“नमो अरिहंताणं” कभी भी बोला जा सकता है
पर “ॐ अर्हं नमः” का तो विधिपूर्वक “जप” ही किया जाता है).
विशेष :
“ॐ अर्हं” मंत्र अपने आप में अधूरा है.
सिर्फ “अर्हं” और “ॐ अर्हं” में भी अंतर है.
पूरा मंत्र :
“ॐ अर्हं नमः”
है.
मंत्र रहस्य :
यहाँ “नमः” शब्द में सुखकारी आश्चर्य है.
ये सुख वैसा ही है जैसा अरिहंतों को प्राप्त है.
जैसे उनका प्रबल पुण्य, उसके कारण ३४ अतिशय इत्यादि.
इस मंत्र के ८ करोड़ जाप करने से जीव को “सारे सुख” प्राप्त होते हैं.
इसमें बुद्धि लगाने का कोई स्थान नहीं है
फोटो :
पालिताना समवसरण मंदिर
(अद्भुत शिल्प रचना)
विशेष:
समवसरण मात्र “तीर्थंकरों” के ही होते है
(गुरुओं के नहीं).
“समवसरण” के आगे और कोई विश्लेषण (जैसे अहिंसा) नहीं लगता
जैसे “सूर्य” के आगे कोई अन्य विश्लेषण नहीं लगता.