कई लोग उस जगह “भीड़” लगाते हैं
जहाँ या तो खुद गुरु या उनके “सिखाये” हुवे भक्त ये दावा करते हैं कि “गुरु बहुत चमत्कारी हैं.”
कुछ “संत” (कहने भर के लिए संत) अपनी हथेली से “कुमकुम” इत्यादि निकालते हैं, उससे बहुत भीड़ (खुद लूटने के लिए) उनके “दर्शन” करने के लिए आती है. “कुमकुम” निकालकर “भीड़” इकट्ठी करने वाले को कहा – महाराजजी, २०० रुपये किलो की “कुमकुम” क्या निकालते हों, २० लाख रूपये किलो वाला सोना निकालो सोना, फिर देखो भीड़ कितनी बढ़ती है.
कहने की जरूरत नहीं कि उनका ऊपर से चेहरा “कुमकुम” जैसा “लाल” हो गया और भीतर से “चांदी” जैसा सफ़ेद.
कुछ ढोंगी “मंदिर” परिसर में ही “ऐसा नाटक” करते हैं मानो उनके “शरीर” में “देव” प्रकट हो गया हो!
“समकित धारी” देव ऐसा कुछ भी नहीं करते जो “फ़ोकट” की “भीड़” इकट्ठी करे.
ना ही “समकितधारी” साधू ऐसा कुछ करते हैं.
जो साधू “खुले आम” “ज्योतिष” वगैरह देखते हैं,
उन्हें स्वयं अपना “भविष्य” (आने वाला भव) देखना चाहिए.
कुछ तो अपने को आने वाला तीर्थंकर तक घोषित कर चुके हैं.
“ज्यादातर जैनों” को तीर्थंकर और वीतराग में क्या फर्क है, नहीं पता.
तीर्थंकर और केवली में क्या फर्क है, नहीं पता.
तीर्थंकर और अन्य देवो में क्या फर्क है, नहीं पता.
(उनके “गणित” के अनुसार सभी देव “एक से” हैं और सभी धर्म भी).
आजकल “विभिन्न महापूजन” खूब पढ़ाये जाते हैँ पर पढ़ाये इसलिए जाते हैँ कि ये “लौकिक” कार्यों में सहायक बनते हैँ क्योंकि अधिष्ठायक देव इससे प्रसन्न होते हैँ.
यहाँ तक तो बात फिर भी “ठीक” है.
पर रोज भक्तों की भीड़ लगी रहे तो “साधू” साधना कब करेगा?
“आत्मा” की “मुक्ति” की बात करने वाला स्वयं “दूसरे” कार्यों में फंस गया हो तो इसे क्या कहा जाए?
सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले – सारी सिद्धियां उन्हें प्राप्त थीं) भगवान महावीर ने कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाए और ना ही दिखाने को कहा है. उनका कहना है : साधना से ‘सिद्धि” यदि प्राप्त भी होती है, तो उसे “गुप्त” रखी जाए. अन्यथा ये पथभ्रष्ट कर देगी. सिद्धि का उपयोग समय आने पर “संघ” के “कल्याण” के लिए ही किया जाता है.