एक श्रावक एक जैन मुनि का “baby” version ही है.

एक जैन मुनि आसन, मुहपति और ओघा ( श्रावक के लिए चरवला – लगभग ओघे जैसा ही), गुरु स्थापन, जप के लिए नवकार महामंत्र, काउसग्ग के लिए लोगस्स, चैत्यवंदन, तप और ध्यान करता है – जीवन भर के लिए.

एक श्रावक को भी वही सारे अधिकार दिए हुवे ही है- पर वो यथाशक्ति करता है अपने जीवन के अनुसार.

जैन वो है जो जिनेश्वर भगवान के वचनों के अनुसार चले. 

इसलिए वास्तव में एक श्रावक एक जैन मुनि का “baby version” ही है.

 

तीर्थ की स्थापना करने के बाद :
तीर्थंकर “नमो तित्थस्स” कहकर (चतुर्विध संघ को नमस्कार करने के बाद) ही अपना आसन ग्रहण करते हैं.

चतुर्विध संघ में हैं : साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका.  सभी के अपने अपने आचार बनाये गए हैं.

कल्पना करो कि हम तीर्थंकरों के समवसरण में बैठे हैं. भगवान “नमो तित्थस्स” कह कर “श्रीसंघ” को नमस्कार करते हैं. “श्रीसंघ” में हम भी शामिल हैं, क्योंकि हम अपने आप को श्रावक कहते हैं. हमारे गुरु  भी हमें  श्रावकजी कहकर ही तो बुलाते हैं.

 

मतलब भगवान ने हमें नमस्कार किया. अब जरा पूछें अपने आप से हमारे में ऐसा कौनसा गुण है कि तीर्थंकर भी हमें नमस्कार करें? क्या हममें ऐसी कोई “योग्यता” है कि उन्हें हमें भी नमस्कार करने जैसा कोई कारण नज़र आया?

दो मिनट में इस पोस्ट को पढ़कर दूसरा पोस्ट पढ़ने कि चेष्टा ना करें.
बहुत गूढ़ बात है इसमें.

यदि हमें लगता है कि हां…तीर्थंकरों को हमें भी नमस्कार करना चाहिए क्योंकि हम उनकी आज्ञा का अक्षरश: पालन कर रहे हैं, तो तो ठीक है, तीर्थंकर कभी असत्य नहीं बोलते और वो हमें जो नमस्कार कर रहे हैं, वो “सत्य” ही है.

 

दोबारा पूछता हूँ, जरा सोचकर अपने “मन” में जवाब देना: हम “नमो अरिहंताणं” कहते हैं नवकार जपते समय, और इधर तीर्थंकर हमें नमस्कार कर रहे हैं, तो हमारे कौनसे गुण के कारण?

यदि उत्तर ना सूझा हो या प्रश्न ही नहीं समझ में आया हो तो अभी चातुर्मास में विराजित अपने गुरुओं से पूछें.

jainmantras.com  का उत्तर है:-

दुर्भाग्य से आज “कहे जाने” वाले ज्यादातर “श्रावक” आलू, प्याज और लहसुन (चुकंदर सहित) का नित्य प्रयोग, रात्रिभोजन, डांस वगैरह सब करते हैं,

पर धर्म के नाम पर कुछ नहीं करते.

अब ऐसे लोगों को तीर्थंकर तो क्या, कोई भी नमस्कार नहीं करेगा.

 

अब भी “हिम्मत” है तो जब गुरु आपको “श्रावकजी” कहकर पुकारें तो सीना तान कर ठाठ से उनके सामने जाएँ. क्योंकि गुरु बिचारे क्या करें जब “श्रावक” ही उनके पल्ले ऐसे ही पड़े हैं.

फोटो: भगवान महावीर फरमाते हैं – पूनिया श्रावक की  एक सामायिक का मोल श्रेणिक राजा के पूरे राज्य को दिया जाए तो भी उस “सामायिक” की “दलाली” में भी पर्याप्त नहीं होगा.

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