पूरे जीवन भर भी “जैन धर्म” के सारे सूत्र “पढ़ना” चाहें तो कम से कम 10 जीवन और चाहिए.
(मात्र मंत्र विज्ञान के ही हज़ारों ग्रन्थ हैं, शास्त्र में आता है कि किसी किसी विद्याधर ने प्रसन्न होकर राजाओं को 48,000 विद्याएँ भी दी हैं – फिर भी सारी विद्याएँ तो नहीं दी थी).
पूरे जीवन भर भी “जैन धर्म” को “समझना” चाहें, तो अभी जैसे कम से कम 100 जीवन और चाहिए.
(चौदह पूर्वधरों को सारे शास्त्रों का ज्ञान होता है, फिर भी वो समकिती ही हों, ये जरूरी नहीं है).
पूरे जीवन भर “जैन धर्म” को “अपनाना” चाहें, तो कम से कम 1000 ऐसे जीवन और चाहिए.
(भगवान महावीर स्वामी के जीव ने पूर्व जन्म में हज़ारों वर्षों की तपस्या की थी – वर्तमान काल में इसके सामने हमारा आयुष्य ही कितना कम है).
पर पूरे जीवन भर “जैन धर्म” को “प्राप्त” करना चाहे,
तो अभी इसी क्षण ही कर सकते हैं:
“जिनेश्वर” भगवान पर अटूट श्रद्धा रख कर!
ये तीर्थंकरों ने “शॉर्ट कट” दिया है.
हमारा धंधा करते समय क्या हम दूसरे का धंधा देखने की सोचते हैं क्या?
उसके नफे/नुक्सान से हमें कोई फर्क पड़ता है क्या?
जो ये कहता है कि अब धंधे में “कस” नहीं रहा
इसका मतलब उसे अपने धंधे में “श्रद्धा” नहीं रही.
कोई भी धंधा सोच समझकर ही शुरू करना चाहिए.
कौनसा धंधा जीवन पर्यन्त अच्छा रहेगा,
इसका फैसला करने के लिए व्यक्ति का “विवेक” जाग्रत होना चाहिए.
कई लोग वो धंधा शुरू करते हैं, जिसमें नफा ज्यादा है – ऐसा लोग कहते हैं.
एक ही धंधे में कुछ लोग खूब कमाते हैं, और कुछ लोग करते हैं खूब नुक्सान.
व्यक्ति का “विवेक” जागता है – पुण्य से.
(बुद्धि तो सभी में होती है).
पुण्य कमाया जाता है – जिनेश्वर भगवान के संपूर्ण समर्पण से.
सात अक्षर का ” नमो अरिहंताणं ” पद जीवन के “सातों सुखों” को तो देने में समर्थ है ही,
“अंत” में “मोक्ष” भी देता है.
इसलिए कोई भी “जैन” अब से ये ना कहे कि सभी धर्म समान हैं.
(यद्यपि लोग अपनाते वही है, जो उनकी “बुद्धि” निर्णय लेती है,
इसीलिए तो ऊपर लिखा है कि ज्यादातर लोगों का “विवेक” ही जाग्रत नहीं होता).
“जैन धर्म” के पंथवाद को अपनी जगह रहने दो,
स्वयं वो अपनाओ जो आपका “विवेक” कहता है.
“विवेक” जाग्रत करने के लिए “साधना” करनी होगी.
नवकार महामंत्र की.