सभी की आत्मा में अनंत शक्ति है – मनुष्य भव में ही इसका विराट स्वरुप प्रकट होता है.
मनुष्य ही “यम, नियम और आसन” की “बात” आसानी से कर सकता है
(अपनाना है या नहीं, ये बात अलग है).
मनुष्य ही “सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य और अपरिग्रह” को जानता है.
(पर अपनाता है या नहीं, ये बात अलग है).
मनुष्य ही “प्राणायाम” क्या है, ये जानता है.
(कोई भी दूसरा प्राणी ये सब क्या है, नहीं जानता).
मनुष्य ही “प्रत्याहार” (छोड़ना) क्या है, ये जानता है.
मनुष्य ही “धारणा” (संकल्प) कर सकता है.
(कुछ लोग “धरना” भी करते हैं, अपने संकल्प को सिद्ध करने के लिए)
मनुष्य ही “ध्यान” कर सकता है.
मनुष्य ही “समाधि ” ले सकता है.
(और मनुष्य ही उस पर अपनी तर्क बुद्धि से “ban” लगाने /लगवाने की सोचता है और उसे “दंडनीय अपराध” घोषित करवाता है).
और इस प्रकार :
जिस “उद्देश्य” को पूरा करने के लिए “मनुष्य” जन्म मिला है,
उसे अपनी “उद्दंडता” से बड़ी आसानी से खो बैठता है.
जो देश “दुनिया” को “आध्यात्मिकता” का पाठ पढ़ाता है
उसी देश का कानून “संतों” को क्या करना चाहिए,
ये पढ़ाने का दु:साहस करता है.
जिस देश में संतों पर भी कानून लागु करने का प्रयास किया जाता है,
उस “देश” का “भविष्य” उज्जवल नहीं होता.
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है.
इतिहास गवाह है, कि अफगानिस्तान का क्या हाल हुआ जहाँ “बुद्ध” की मूर्तियां तहस-नहस की गयी थी.
“आध्यात्मिक” शक्तियों का मूल्यांकन “भौतिकता” के माप-दंड से सोचना,
मतलब “विष” में “अमृत” को ढूंढने जैसा है.