हम भरोसा करते हैं –
अपने परिवार पर.
अपने सगे सम्बन्धियों पर,
अपने पड़ोसियों पर,
अपने मित्रों पर,
अन्य पर जिनसे हमारा किसी कारणवश बरसों से सम्बन्ध है.
“अचानक” मुसीबत आने पर
“अन्य” जो हाजिर हों वो ही काम आते हैं.
कहने का अर्थ ये है कि
हमारे काम वो ही आते हैं जिनसे हमारा “सम्बन्ध” हो.
“धर्म” हमारा मित्र है – ये बार बार कहा जाता है.
हमारा सम्बन्ध “अपने” “जैन धर्म” से कैसा है ?
हम लोगों को पहचानने की खूब चेष्टा करते हैं.
पग पग पर उनके दोषों पर अपनी “क्रूर” दृष्टि रखते हैं.
पर इतना समय “धर्म” को “समझने” और “अपनाने” में नहीं लगाते.
फिर भी “दावा” करते हैं कि हमारा धर्म “जैन” है !
“हमारा” कहने का मतलब “धर्म” से निकट का सम्बन्ध !
जब तक किसी से निकट का सम्बन्ध ना हो तब तक वो “हमारा” कैसे हुआ?
आज तो हमारा अपनों से ही “सम्बन्ध” रखना दुखदायी सा लगता है.
लगता है थोड़ी से लापरवाही हुई नहीं कि सम्बन्ध में कड़वाहट आई नहीं.
ऊपर कि दो लाइनें पढ़कर थोड़ा रुको.
भागने के लिए तो जिंदगी पड़ी ही है.
चिंतन करना है कि हम किसी से “सम्बन्ध” रखें
या “दूसरे” हमारे से सम्बन्ध रखें.
सम-बंध
मतलब दोनों का पलड़ा हवा में ऊँचा रहे !
ऐसा हो.
जिस समय हम “धर्म” से “सम्बन्ध” स्थापित करते हैं,
तब धर्म भी ऊँचा रहता है
और हम भी ऊँचे उठते हैं !
अब सोच लो, करना क्या है !
अपने धर्म को ही ज्यादा निकट से अपनाना है
या
अन्य धर्म की ओर भागना है जहाँ ‘चमत्कार” होने का दावा किया जाता है.
विशेष:
किसी पर हमारा “भरोसा” टिक पाये, उसके लिए हमें “वैसा” प्रयत्न भी करता पड़ता ही है.
“धर्म” को “पा” सकें, इसके लिए भी तो वैसा ही “उत्कृष्ट” प्रयत्न करना ही होगा.