जैनों के कुछ संप्रदाय “देव-देवी” की सहायता लेने के पक्ष में नहीं हैं.
उनकी मान्यता के अनुसार ये “मिथ्यात्त्व” है.
(आत्मा से विमुख हर साधना “मिथ्यात्त्व” है, ये बात एकदम सही है).
पर आज वही समुदाय सिर्फ “धर्म” शब्द को पकड़कर बैठे हैं.
“धर्म-क्रिया” (इसमें “पूजा-पाठ” शामिल है) भी करते हैं
परन्तु “आत्म-चिंतन” की वहां सिर्फ बात होती है
“आत्मा” का “अनुभव” वहां कुछ भी नहीं होता.
-ऐसा देखने में आया है.
jainmantras.com का ये कहना है कि हमें “पकड़ना” भी है
और “पकड़” कर “बैठना” भी नहीं है.
(जैसे पैसा कमाना भी है, और कमा कर संचय भी नहीं करना है
उसका सदुपयोग करना है )
इसी प्रकार “धर्म” करना भी है, और “धर्म की बातों” को “पकड़कर” “बैठना” भी नहीं है.
जिन-धर्म के इस गूढ़ रहस्य को कोई विरला ही समझ पाता है.
यदि समझ ले, तो मत-मतान्तर अपने आप “छू” हो जाए !