“जिन सूत्रों”
(अर्हत वचन
यानि जिनेश्वर भगवान द्वारा
दी गयी देशना) का
श्रवण, पठन, पाठन,
चिंतन-मनन और
ध्यान
ये सब “भगवान” के साथ
“डायरेक्ट कनेक्शन” करवाता है.
एक स्टोरी जब आप पढ़ते हो
तो मानो उसी में खो जाते हो.
कहानी में बच्चों को “शेर” के बारे में बताते ही
उन्हें “डर” लगने लगता है,
जबकि वो शेर उस समय कहीं आस-पास होता भी नहीं.
“बचपन” की ये यादें सभी के साथ रहती हैं-बुढ़ापे तक.
प्रश्न:
बचपन में “बच्चे” भगवान से बात भी कर लेते है.
बड़े होने के बाद नहीं कर पाते.
क्या इसे वास्तव में “बड़ा” होना कहेंगे?
किसी भी विषय में बात करते समय-
हमारा शरीर कहाँ पर होता है?
हम बोलते कहाँ पर हैं?
हमारा मन किस स्थान पर होता है?
धंधा करते समय हमारा मन कहाँ पर होता है?
खाने खाते समय हमारा मन कहाँ पर होता है?
मूवी देखते समय हमारा मन कहाँ पर होता है?
तो फिर “चैत्यवंदन” करते समय
हमारा मन कहाँ पर होना चाहिए?
“चैत्यवंदन” करते समय “मन” सूत्रों में ही लगा रहे,
इसके लिए हर सूत्र का “अर्थ” पता होना चाहिए.
ज्यादातर लोग रटे हुए सूत्र बोलते हैं
जैसे मास्टर जी के सामने
“लेसन” अच्छी तरह याद है,
ये बता रहे हों.
सही टेस्ट तो ये है कि क्या सूत्र-बोलने में
वो “भाव” आ रहा है जो आना चाहिए?
“सिद्धाणं बुद्धाणं” सूत्र
बोलते समय भाव कहाँ तक आता है?
कभी “सिद्ध शिला” का विचार आया है?
कदाच इस बात का ही विचार अभी तक ना आया हो.
“इक्कोवि णमुक्कारो जिणवर वस्सहस्स वद्धमाणस्स
संसार सागराओ तारेई नरं व नारिम् वा”
इसका अर्थ है :
श्री वर्धमान स्वामी को किये गए एक ही नमस्कार से
नर और नारियां भव सागर तर जाती हैं.
जरा विचार करो:
“सूत्र” बनाने वाले के भाव कितने ऊँचे हैं!
बहुत ही महत्त्वपूर्ण:
अबकी बार जब “सिद्धाणं बुद्धाणं” सूत्र बोलो
तब “महसूस” करो कि आपके मुख से निकली हुई
“ध्वनि” की तरंगें वहां वहां जा रही हैं
जहां जहाँ भगवान महावीर ने विचरण किया है
और जहाँ जहाँ उनके “चैत्य” (जिन-मंदिर) हैं.
फोटो:
“गोदोहिका” आसन में ध्यान करते हुए
भगवान महावीर को केवल ज्ञान प्राप्त होना