प्रश्न :
“प्रभु” की “भक्ति” पहले करें या “गुरु” की?
उत्तर आप स्वयं देवें कि-
गुरु की “उपस्थिति” प्रभु के “कारण” है
या गुरु के “कारण” प्रभु की “उपस्थिति” है?
विशेष :
कृपया पोस्ट गौर से पढ़ें. बात “गुरु पूजा” से “पहले” “प्रभु पूजा” करने की है.
ना कि गुरु पूजा का कोई “विरोध” करने की.
आजकल “गुरु मंदिर” भी बनने लगे हैं.
जिस “गुरु” ने शिष्य के सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिए हैं
और “शिष्य” ने सिर्फ उनके “चरण” स्पर्श ही किये हैं,
वो अब गुरु मंदिर में “अज्ञानतावश” चन्दन पूजा करते समय
उनके “सर” पर भी अपने हाथों से “स्पर्श” करता है.
कारण?
विवेक जो नहीं रहा.
(पहले भी था कब)?
“गुरु” से क्या “माँगना” था
और अब क्या “मांग” रहे हैं!
विशेष:
1. गुरु के “चरणों” की ही महत्ता है.
भगवान महावीर से जब पूछा गया कि
“समुद्र अपनी मर्यादा क्यों नहीं लांघता है?”
तब उनका उत्तर था :
“पृथ्वी” पर “गुरुओं” के चरण स्पर्श कर रहे हैं,
इसीलिए समुद्र अपनी मर्यादा नहीं लांघ पाता है.
2. भगवान महावीर ने केवलज्ञान के पश्चात अपने पूरे जीवन
में मात्र और मात्र ज्ञान की ही बात कही है.
परन्तु श्रावक अब गुरु भक्त हो गए हैं और
ज्यादा से ज्यादा संख्या में इसलिए आते हैं कि
“गुरु” पीठ पर “जोर” की थप्पी लगाये और
सारी “इच्छाएं” धमाधम पूरी हो जाए
“(ज्ञान” की बातें गुरु अपने पास रखे)!”
इसे गुरु भक्ति कहेंगे या अंध भक्ति?
(इसे “श्रद्धा” नहीं कहते, “श्रद्धा” वहीँ होती है जहाँ आचरण में “धार्मिकता” हो).
फोटो:
श्री महावीर स्वामी,
पावापुरी