स्व-तंत्र का अर्थ है : “खुद की व्यवस्था” जिसमें दूसरे का हस्तक्षेप ना हो.
“खुद-की व्यवस्था” का अर्थ है : अपने तरीके से “जीवन जीना”.
“जीवन जीने” का अर्थ है : जिसमें “प्रसन्नता” रहे भले ही “मौज-शौक” के साधन कम हों.
“प्रसन्नता” मन में होती है.
“बहुत कुछ” होते हुवे भी आज ज्यादातर लोगों के मन में प्रसन्नता नहीं है.
मन प्रसन्न नहीं है, इसका मतलब वह “जीवन” नहीं जी रहा.
“जीवन नहीं जी रहा” इसका मतलब वह किसी तरह “समय काट” रहा है.
“समय काटने” का मतलब “जीवन व्यर्थ” कर रहा है.
सारांश ये है कि वो “मनुष्य” भव बर्बाद कर रहा है.
पुण्य से देव से भी बढ़कर मनुष्य भव मिला पर भेड़ चाल से वो उसे अंत में डूबत खाते में डालता है.
पैसे की भाषा में (ज्यादातर लोगों को यही भाषा समझ में आती है) ऐसा समझें कि 5 करोड़ की पूँजी लेकर आया (पुण्य) और 10 करोड़ का कुल नुक्सान किया (अब बैंक का लोन सर पर खड़ा है) और दिवालिया हो गया. 5 करोड़ माइनस किया मतलब इतना “पाप” बाँधा.
नुक्सान किसके कारण होता है? पाप के उदय के कारण!
व्यक्ति ये बात समझने के लिए तैयार ही नहीं है. वो तो ये कहेगा कि मेरा पैसा इतने लोग “खा” गए. खुद ने “अपनी पूँजी” की सीमा में काम नहीं किया, ये बात वो स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है.
अच्छे से अच्छा पैसे वाला (समाज द्वारा समझे जाने वाला) हर समय “लोन” लेने की बात करता है. “लोन” लेने का विचार भी आये, तो समझ लेना की पाप का उदय हुआ है. 25,000 करोड़ की प्रॉपर्टी का मालिक भी बैंक का 10,000 करोड़ का लोन चूका नहीं पायेगा. प्रॉपर्टी कॅश नहीं है. उसे बेचने निकालेंगे तो उसी समय बिक नहीं जायेगी.
वर्तमान में ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे. क्योंकि वो मानते हैं की “दिखावा” करना “पड़ता” है. इसी वाक्य को आप दोबारा पढ़ें-तीन बार पढ़ें और पांच बार भी पढ़ें. फिर खुद से ही पूछें कि ऐसा निर्णय लेने में कौनसी “बुद्धिमता” है.
यदि आपका “सर्किल” बड़ा है, तो छोटा कीजिये. आप जैसे ही ज्यादा लोग इस संसार में है. बहुत धनी बहुत ज्यादा लोग नहीं हैं. उनको देखकर अपना जीवन बर्बाद मत कीजिये.
सच्ची स्वतंत्रता वही है – जहाँ किसी को कुछ चुकाना ना हो, खुद की व्यवस्था तक ही काम हो.
यही जीवन मंत्र है.