मंत्र साधना की पूर्व भूमिका में सबसे जरूरी है:
१. “सत्य” को अपनाना
(यदि “सत्य” का ज्ञान ही नहीं नहीं है, तो सबसे पहले उसे ही जानना होगा जिसके लिए ऐसे “गुरु” की आवश्यकता होतीं है जो स्वयं अपनी “ग्रंथियों यानि समुदाय” तक ही ना सोच कर विश्व कल्याण की बात करता हो. सिर्फ ऊपर से बात ही नहीं करता हो, अपने “चित्त” में उसे वास्तव में अपनाता भी हो).
“सत्य” के “मूलभूत” कण:
अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अचौर्य और अपरिग्रह- ये सत्य हैं.
समझने के लिए प्रश्न और प्रतिप्रश्न हो सकते हैं –
क्या हिंसा सत्य है?
कोई हाँ, बोलें तो क्या वो अपना “कत्ल” स्वीकार करेगा?
क्या “ब्रह्मचर्य” ही सत्य है?
यही नहीं तो फिर लोग संतों को क्यों पूजते हैं.
क्या “चोरी” सत्य है?
यदि ना, तो क्या तुम्हारी “वस्तु” की चोरी तुम्हें स्वीकार होगी?
क्या “परिग्रह” सत्य है?
यदि हाँ, तो क्या “कालाबाज़ारी” मान्य की जाए?
२. अहिंसा
“अहिंसा” ही “सत्य” है. “अहिंसा” ही अचौर्य तक ले जाती है (किसी की वस्तु चोरी करने से उसे दुःख पहुँचता है, अहिंसक व्यक्ति ऐसा कार्य नहीं करता). “अहिंसा” ही “ब्रह्मचर्य” की और ले जाती है और “अहिंसा” ही “अपरिग्रह” की ओर ले जाती है.
३. ब्रह्मचर्य
जैन धर्म में श्रावकों को “स्वदारा संतोष” (स्वदारा =अपना जीवन साथी ) “सूत्र” दिया गया है. इसके “आगे” जो भी “सोचता” भी है, उसे “अतिक्रमण” कहते हैं.
4. अचौर्य
बिना पूछी किसी की सुई भी ना लेना. पुस्तक भी ना लेना.
5. अपरिग्रह
“अशांति” की जड़ यही है. “संग्रहवृत्ति” ही “समाज” में हिंसा (अहिंसा के विपरीत), असत्य (सत्य के विपरीत) और चोरी (टैक्स की चोरी भी) को प्रोत्साहन देती है.
जिसके पास “जीवन लक्ष्य” के बिना, जरूरत से अधिक है, वही सारे “दुराचार” करता है.
“दुराचारी” का कोई “जीवन लक्ष्य” नहीं होता.
क्या हमने सोचा है कि “हमारी संपत्ति” का सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता है?
जब तक इन बातों पर “चिंतन”, “मनन” और “प्रैक्टिकल एक्सपोज़र” नहीं होगा,
तब तक “मंत्र साधना” की बात करना “व्यर्थ” है.
(बहुत से लोग सोचते हैं कि jainmantras.com में रोज नए मंत्र दिए जाएँ, हकीकत में तो जितना व्यक्ति जानता है, यदि उसे ही फॉलो करे, तो उसका “कल्याण” हो जाता है).