जीवन पूरा “समर्पण” करो “जिनेश्वर भगवान” को.
देखो तीर्थस्थानों को जहाँ जैनों ने “अपना सर्वस्व” लगा दिया
जिसके कारण “लाखों-करोड़ों” लोग सम्यक्त्व पाये, पा रहे हैं और पाएंगे.
ये भव्य मंदिर क्या कहते हैं?
असली “संपत्ति” तो “आत्म संपत्ति” है.
इसीलिए जिसके कारण “आत्मा” का “ज्ञान” पाया,
उसी को सब “समर्पित” है
क्योंकि “आत्मा” को तो मात्र “ज्ञान” ही चाहिए.
(जब तक “आत्म-ज्ञान” ना हो, तब तक “सर्वश्रेष्ठ जिनेश्वर” की शरण स्वीकारनी चाहिए जैसे जब तक एक बच्चा बड़ा होकर कमाने योग्य नहीं हो जाता तब तक अपने पिता की “शरण” में रहता है – पिता उसके लिए पूजनीय भी है, कमाने योग्य हो जाता है तो भी “पिता” पूजनीय है – जिनेश्वर भगवान तो “परम पूजनीय” हैं).
जो लोग ये कहते हैं कि जैनों को हॉस्पिटल बनानी चाहिए,
(जो लोग हॉस्पिटल बना रहें हैं उसका जैन धर्म “विरोध” नहीं करता, ये समाज कल्याण का काम है जो जैनी करते ही रहे हैं, परन्तु ये “धर्म” नहीं है, ये अनुकम्पा है, इससे बहुत थोड़ा पुण्य प्राप्त होता है, जैन शास्त्रों में कहीं भी ये वर्णन नहीं आता कि किसी तीर्थंकर या साधू ने हॉस्पिटल्स बनाने का उपदेश किया हो या पूर्व भव में तीर्थंकरों के जीवों ने खूब हॉस्पिटल्स बनाये थे, आदि . – इसकी चर्चा बहुत लम्बी है जो फिर कभी अन्य पोस्ट में की जायेगी).
वो ये मानते हैं कि भविष्य में “बिमारी” आएगी.
सोचने की बात तो ये है कि “ये विचार क्यों आया?”
बचपन में ये विचार नहीं आता.
जवानी में भी नहीं आता.
बुढ़ापे में आता है.
पूरी पोस्ट पढ़ कर कहो कि बुढ़ापे में कौनसा विचार आना चाहिए?
(उत्तर : आत्मा के कल्याण का – जब “शरीर” “योग्य” ना रहे, तो “संथारा” लिया जाता है और उसी “अधिकार” के लिए आज सारे जैन एक हुवे हैं).