“अरिहंत परमात्मा”
को हम “परमपिता”
कहते हैं.
उस “पिता” के हम
“पुत्र” कैसे हैं?
लायक या नालायक?
गुरु भी तीर्थंकर को परमपिता कहते हैं
और हम भी उन्हें परमपिता कहते हैं.
फिर अंतर क्या हुआ?
“गुरु” एक “माध्यम” है
“अरिहंत” तक पहुँचने का.
हमने क्या किया है?
“गुरु” को “परमपिता” से “ऊपर” का
दर्जा दे दिया है.
“अरिहंत” के “स्वरुप” को जानने की चेष्टा नहीं करते.
“मनुष्य जन्म” को उन्होंने “धन्य” बनाया है
खुद भी धन्य बने
और दूसरों को भी अपने जैसा बनाया.
(उनके ही कई श्रावक आगे आने वाली चोविशी में तीर्थंकर बनेंगे).
करोड़ों देव अरिहंत की सेवा में रहते हैं.
परन्तु हम क्या करते हैं?
हम उन “देवों” की “हाजरी” बजाते हैं
जो देव खुद “अरिहंत” की शरण में हैं.