“जग चिंतामणि” सूत्र गौतम स्वामी जी की अजोड़ रचना है जो उन्होंने अष्टापद तीर्थ की यात्रा के समय बनाई. साधूमार्गी सम्प्रदाय ने इसे अपने प्रतिक्रमण सूत्रों से हटा दिया है, श्रावकों को एक सूत्र कम पढ़ना पड़ता है.
क्योंकि यदि इसे स्वीकृत करें तो तीर्थ को मानना पड़े!
सम्प्रदाय की मान्यता के विरुद्ध होने के कारण तीर्थ को मानना ही नहीं है, भले आज भी विद्यमान हों जो गौतम स्वामी के समय भी थे.
अब कहने लगे हैं कि तीर्थ को मानते ही हैं पर पूजा को नहीं मानते!
वहाँ पूजा होते हुवे भी पूजा को नहीं मानना,
ये कैसी मान्यता है?
विशेष :
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साधू निर्ग्रंथी होता है.
निर्ग्रंथी किसी “मान्यता” को नहीं “पालता!”
वो किसी मान्यता से नहीं बँधता.
इसीलिए तो गोचरी किसी श्रावक के यहां से ही लाने के लिए बंधा हुआ नहीं है!
वो साधना के लिए उपाय और साधन ढूँढता है,
पर अपने द्वारा अपनाया गया साधन “ही” मोक्ष मार्ग है,
ऐसा कभी कह ही नहीं सकता.
कहता है तो असत्य भाषण करता है
जो कि शास्त्र विरूद्ध है.
एक व्यवस्था को स्वीकार करना अलग बात है
यानि व्यवस्था में रहना अलग बात है
और “अपनी ही व्यवस्था” को सही मान लेना
“सत्य” से कोसों दूर ले जाता है!
दिगंबर साधू अन्य साधुओं को अपूर्ण मानते हैं,
मतलब सिर्फ अपनी ही व्यवस्था सही है,
ये बात ऐसी हो गई!
मन्दिर मार्गी जिन पूजा करना श्रावक का कर्त्तव्य मानते हैं, पर यदि “यही” सही है तो अन्य सम्प्रदाय गलत सिद्ध होते हैं.
साधू मार्गी अपने मुख पर मुहपत्ती बाँधना स्वीकार करते हैं, किसी ने कहा नहीं है, स्वयं ने ऐसा माना है कि “यही” अहिंसा का श्रेष्ठ उपाय है! अब बांधो जीवन भर, किसको आपत्ति है?
ये सब ग्रंथियों से बंधने के उदाहरण हैं!
अब सोचो,
ये आपको पूर्ण सत्य तक पहुंचाएंगे?
हमारी “आत्मा”
दिगंबर, मंदिर मार्गी और साधू मार्गी है?
इनमें से एक भी नहीं!
इसीलिए श्रावक सभी एक से हैं,
भूल हो रही है संतों में,
जो अपनी अपनी “व्यवस्था” तक “सीमित” हो गए हैं!
इसीलिए अन्य को सही कह नहीं पा रहे!
महावीर मेरा पंथ
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