हमारी समझ और हमारा भ्रम

हमारी दुर्दशा का कारण
—————————–

जिनवाणी यानि जिन सूत्रों में
जितना अधिक है,
उससे बहुत कम कहा गया है,

जितना कहा गया है,
उससे बहुत कम ढंग से सुना गया है,

जितना सुना गया है,
उससे बहुत कम समझा गया है,

जितना समझा गया है,
उससे बहुत कम स्वीकार हो पाया है,

जितना स्वीकार हो पाया है,
उससे बहुत कम “आचरण” में आ पाया है.

उदाहरण :

केवल ज्ञान है : 100%
(सागर के समान)

चौदह पूर्व हैं :
केवल ज्ञान की एक बूंद के समान!

भरत क्षेत्र में अभी केवल ज्ञान है नहीं,
चौदह पूर्व हैं नहीं,

तो समझ लें कि कितना अभी सुनने को मिलता है, कितना सुन पाते हैं, उसमें से कितना समझ पाते हैं, कितना स्वीकार कर पाते हैं और कितना हम ग्रहण कर पाते हैं.

जिन्हें हम धर्मी और धर्म के शहंशाह “समझते” हैं उनकी पोल सामने न आए तब तक ही ठीक है, उनके लिए भी हमारे लिए भी! भ्रम का अपना अलग ही “मजा” है!!

पर जिस दिन भ्रम टूटा,
उस दिन?

एक गर्जना होगी, “चित्कार” उठेगी और
अपने भीतर “चमत्कार” की वर्षा होगी.

फिर बाहरी चकाचौंध, मौज मस्ती की जरूरत नहीं पड़ेगी, ये सब अपने भीतर ही inbuilt है, उससे भी अनेक गुना श्रेष्ठ और पूर्ण रूप से शुध्द!

जो बाहर मिल ही नहीं सकता!

महावीर मेरा पंथ
Jainmantras.com

error: Content is protected !!