जैन धर्म के मूल सिद्धांत “आत्मा” के “उत्थान” की बात करते हैं
“संथारा” उसी की क्रिया है जो जीवन के अंतिम समय में की जाती है जब शरीर का साधन के रूप में कोई उपयोग नहीं रह गया हो.
जैन धर्म “अनेकांत” में विश्वास करता है और सभी धर्मों को धर्म के दृष्टिकोण से ही देखता है.
“धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष” की बात हिन्दू धर्म में कही गयी है.
“समाधि” की बात “धारणा, ध्यान और समाधि” में शामिल है.
(1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि।
ऋषि पतंजलि के अनुसार : सिद्धियां (भौतिक और आध्यात्मिक) समाधि के मार्ग की “बाधाएँ” ही हैं। चौथा कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ साधक अपने मूल स्रोत (आत्मा) से एकाकार हो जाता है।
“योग दर्शन” समाधि के द्वारा ही “मोक्ष” को साध्य मानता है.
महर्षि पतंजलि के योग को ही अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। योग के उक्त आठ अंगों में ही सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही हिस्सा है। हालांकि योग सूत्र के आष्टांग योग बुद्ध के बाद की रचना है।
अष्टांग योग : इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजलि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में बता दिया है (श्रेणीबद्ध कर दिया है)। लगभग 200 ई.पू .में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की।
यह आठ अंग हैं- (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।
योग सूत्र : 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद (division) कहा गया है, में विभाजित (divided) है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।
प्रथम पाद (भाग) समाधिपाद का मुख्य विषय चित्त (मन) की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।
द्वितीय पाद (भाग) साधनपाद में पाँच बहिरंग साधन (बाहरी दिखने वाले) – यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।
तृतीय पाद विभूतिपाद में अंतरंग (स्वयं को अंदर देखना) तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है।
इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं। हकीकत भी यही है.
चौथा कैवल्यपाद कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत (आत्मा) से एकाकार हो जाता है।
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“आत्मा” का “आत्मा” में एकाकार हो जाना!
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आने वाले समय में “व्याख्यान” और “शिविर” भी लगाये जाएंगे.
दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन ( Peace of Mind ) है।
चित्त वृत्तियों के निरोध (concentration of mind ) के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-
- यम: कायिक (body), वाचिक (speaking) तथा मानसिक (मन, वचन और काय) इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- पाँच आचार (to follow) विहित (included) हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित (badly affected) होते हैं। अनादिकाल से जैन धर्म यही कहता है. परन्तु जैन धर्म के सूत्रों को भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष तक लिखा ही नहीं गया, क्योंकि “सूत्र” सभी “याद” थे और गुरु परंपरा से चलते आ रहे है. जब याददाश्त कमजोर होने लगी, तब “सूत्रों” को लिखा गया.
(2) नियम:
मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इसमें शौच (शुद्धि), संतोष (satisfaction), तप (fast), स्वाध्याय (meditation) तथा ईश्वर प्रणिधान (प्रभु का ध्यान) का समावेश है। शौच में बाह्य (outer) तथा आन्तर (inner) दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट (included) है।
(3) आसन:
पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घेरण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।
(4) प्राणायाम:
योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन ((systematic breathing) प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता (irritation) पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
(5) प्रत्याहार:
इंद्रियों (eyes, ear, tounge, etc.) को विषयों (luxuries) से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
(6) धारणा:
चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है ।
(7) ध्यान:
जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप (लीन) हो जाता है, उसे बाहर क्या हो रहा है, उसका कुछ भी अन्य वास्तु का “ज्ञान” या “जानकारी” नहीं रहती, तो उसे “ध्यान” कहते हैं।
(8) समाधि:
यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं :
सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात।
सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है।
असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है |
संथारा उसी का स्वरुप है. यदि हिन्दू धर्मावलम्बियों ने कोर्ट के इस फैसले का विरोध नहीं किया,
तो आने वाले समय में उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.
विशेष : कुछ शब्द जो हिंदी में उपलब्ध हैं, उनका English version संभव नहीं है. जैसे कि “चित्त,” “मन” इत्यादि.