दशहरा से पहले नवरात्रि आती है.
दशहरा का अर्थ है : जिसके दस सर थे, उसके प्राण हर लिए गए.
दस का क्या महत्त्व है?
दस प्राण होते हैं.
दस दिशायें होती हैं.
दस दोष कहे गए हैं “मन” के
और दस ही दोष कहे गए हैं, “वचन” के.
“मंत्र” जप करने वाले को “मन” की शुद्धि के साथ “वचन” की शुद्धि भी चाहिए.
भूल कर के भी “अशुभ” वचन किसी के लिए भी ना बोले.
जैन मन्त्रों के सिद्ध होने की ये दोनों बड़ी कड़ी शर्त्त है.
यदि ये “सिद्ध” कर लिया यानि मन को वश में कर लिया,
“वचन” को “वश” में कर लिया,
तो जैन मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध हो जाते हैं.
(जैन मंत्र एकदम विशुद्ध हैं, किसी का बुरा करना तो छोडो, उसके लिए बुरा विचार भी करने की बात नहीं होती).
अन्यथा जो सवा लाख मंत्र जपने की बात करते हैं, वो इस बात की गारंटी नहीं दे सकते कि
सवा लाख मंत्र जपने के बाद भी मंत्र सिद्ध हो ही जाएगा.
jainmantras.com कि अन्य पोस्ट में ये लिखा है कि श्री मानतुंगसुरीजी ने काल कोठरी में भक्तामर के कोई घोटे नहीं लगाए थे. मात्र उसे एक बार पढ़ा था. खुद ही जो रचना कर सकता हो वो क्या उस रचना को बार बार थोड़े रटेगा?
आज हम हर शुभ कार्य की शुरुआत के समय “भक्तामर स्तोत्र” का पाठ करने की बात करते हैं.
पर हकीकत में कइयों को इस पर भी पूरी श्रद्धा नहीं है.
जो लोग ये कहते हैं कि क्या मंत्र प्रभावशाली होते हैं?
उनके लिए जवाब है:
संसार में जितने भी “अक्षर” हैं, “शब्द” हैं, “पद” हैं, वे सभी मंत्र हैं.
पर रहस्यमयी बात है : मंत्र सिद्धि की !
मन सरल है, तो मंत्र सिद्धि सरल है.
मन में परोपकार है, तो मंत्र देवता भी उपकार करने को तैयार हैं,
मन में “शुद्धता” है, तो मंत्र देवता जल्दी आकर्षित होते है.
मन मेँ उच्च “भाव” हैं, तो मंत्र सिद्धि का “प्रभाव” शीघ्र प्रकट होता है.
और यदि मंत्र बोलते ही मन के तार
सीधे जुड़ जाते हैं आराध्य से,
आंसूं निकलते हों,
बोलना थम जाता हो,
विचार शून्य हो जाते हों,
शरीर मेँ “सिहरन” (कम्पन) हो,
तो समझो की मंत्र सिद्ध हो गया है.
विशेष: जिसका मन काबू मेँ नहीं रहा,
उसे दस सिर होते हुवे भी बेमौत मरना पड़ा,
भले ही अति बलशाली ही क्यों ना था.
(रावण को अहंकार के कारण मरना पड़ा, ये मूल कारण नहीं था. उसके पतन का मूल कारण – उसका “मन” वश मेँ नहीं रह सका था).