शत्रुंजय तीर्थ की महिमा -1

पूर्वभूमिका:

जो तीर्थ अनंत काल तक रहेगा और लगभग शाश्वत है, उस तीर्थ के बारे में लिखना मतलब आम और चीकू की मिठास के “स्वाद” को “शब्दों” में बताने का दुष्कर प्रयास करने जैसा है. आम और चीकू दोनों ही मीठे होते हैं, पर दोनों की मिठास में भिन्नता है. जो खाए वही जानता है कि दोनों कि मिठास में क्या फर्क होता है.

 

ज्ञान” भी ऐसा ही है. “ज्ञान” को शब्दों में पूर्ण रूप से नहीं बताया जा सकता. “शब्द” बहुत छोटे होते हैं “ज्ञान” के आगे. “ज्ञान” विशाल होता है जब प्रकट हो जाए तो. अन्यथा तो “अज्ञान” ही बड़ा होता है. जब तक “अज्ञानता” रहती है तब तक व्यक्ति बहस में “अपनी” ही बातें “ऊपर” रखता है. इसमें से ज्यादातर बातें तो वो होती हैं जिसका उसने खुद कोई “अनुभव” नहीं किया होता है.  “अज्ञानता” और “अनुभव” दोनों बातें एक दूसरे के विपरीत हैं. फिर भी मजे की बात ये है कि कई बार “अज्ञानी” बहस में बाजी मार लेता है क्योंकि “ज्ञानी” शब्दों में अपने ज्ञान को  प्रकट नहीं कर पाता. ऐसा होने पर “अज्ञानी” अपने “अज्ञान” को  ही “ज्ञान” मानकर घोर अन्धकार में भटकता रहता है. ज्यादातर जीवों की यही स्थिति है.

 

सामान्य केवलियों के पास भी “संपूर्ण ज्ञान” होता है परन्तु वो “भाषा” नहीं होती जो “तीर्थंकरों” के पास होती है. यहाँ पर “भाषा” यानि “शब्दों” की महत्ता प्रकट होती है. यद्यपि ये बात सही है की “शब्द” बहुत छोटे होते हैं संपूर्ण ज्ञान के आगे फिर भी लोगों को समझाने  के लिए तो “भाषा” का ही प्रयोग किया जाता है.

वर्तमान में जैनधर्म के अनुयायी संख्या में भले ही कम हों, परन्तु तीर्थंकरों की वाणी को पहुँचाने वाले जैनसाधुओं की संख्या अन्य धर्मों  की अपेक्षा बहुत अधिक  है. मात्र इसी  वर्ष 2015 में अब तक 14000 साधु-साध्वी दीक्षा ले चुके हैं.  जैन साधू सामान्य जन तक पहुँचते हैं. क्योंकि उनका आठ महीने तक विचरण रहता है और चार महीने एक ही स्थान पर रहकर वो कार्य कर पाते हैं, जो एक सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति की समझ के बाहर  है.  यही जिनधर्म की महानता को सिद्ध करता है.

 

 

माँ सरस्वती और गुरु गौतम स्वामी को साक्षी रखकर मेरी अल्प बुद्धि से जितना समझ सका हूँ, उतना लिखने का प्रयास है.

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