“सरस्वती” स्पेशल (भाग-1) से आगे …..
3.5 करोड़ श्लोक लिखने वाले श्री हेमचन्द्राचार्य ने “ॐ अर्हं मुखकमलनिवासिनी पापात्मा क्षयंकरि..” का मंत्र दिया है. इसे नकारने का मतलब श्री हेमचन्द्राचार्य को नकारना है. इस मंत्र का अर्थ है : सरस्वती श्री अरिहंत के मुख में निवास करती है. पाप का नाश करती है.
इसी लिए jainmantras.com की अन्य पोस्ट में लिखा है कि अरिहंत का नाम लेते ही पुण्य प्रकट होने लगता है. पाप गायब ऐसे हो जाता है जैसे कि सूर्य के उगते ही अँधेरा. अँधेरे को मिटा कर फिर प्रकाश करना हो, ऐसी जरूरत नहीं होती.
जैन धर्म गुणों को पुजारी है. श्री अरिहंत के 12 गुण होते हैं. पहला है “अशोकवृक्ष” जिसके नीचे बैठकर श्री अरिहंत अपनी धर्म देशना देते हैं. इसलिए हम “अशोकवृक्ष” की भी पूजा करते हैं. क्या हम पालिताना में “रायण वृक्ष” को नमस्कार नहीं करते? जो धर्म के प्रतीक को ना मानकर मात्र अरिहंत को ही मानने की जिद्द पर अड़े हैं तो इसका मतलब वे अरिहंत के गुणों को सही तरह से समझे नहीं हैं.
जो सरस्वती को नहीं मानते, तो इसका मतलब वो अपने को हेमचन्द्राचार्य से ऊँचा मानने की कोशिश कर रहे हैं.
फिर तो उनके लिए “जिन पंजर स्तोत्र” और “लघु शांति” जैसे स्तोत्र को पढ़ने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इन दोनों सूत्रों में “पूर्व सूरि” शब्दों का प्रयोग होता है.
4. वर्तमान में प्रचलित यही है की हेमचन्द्र सूरि जी को सरस्वती देवी ने वरदान दिया । लेकिन जिनमण्डन गणि जी कृत कुमारपाल प्रबन्ध आदि कुछ पुरातन कृतियों में लिखा है की हेमचन्द्र आचार्य , देवेन्द्र सूरि जी एवं प्रसिद्द टीकाकार मलयगिरि सूरि जी ने साथ में सिद्धचक्र की आराधना की एवं रैवतावतार तीर्थ में विमलेश्वर देव ने प्रकट होकर तीनों की ज्ञान साधना में सहायी होने का वरदान दिया । वर्णन में इतना वैविध्य क्यों ?
उत्तर: एक ही श्लोक के लाखों अर्थ हमारे पूर्व के प्रभावक आचार्यों ने किये है. विविधता तो जैन धर्म के हर पंथ में है. कोई किसी को मानता है और दूसरा उसे मानता ही नहीं. मानने और ना मानने के लिए वो अपने अपने शास्त्रों का आधार देते हैं.
5. मानो कि किसी व्यक्ति के ज्ञानवरणीय कर्म का इतना क्षयोपशम ही नही की वह पढ़ सके या ज्ञान अर्जित कर सके तो फिर क्या देवी सरस्वती का वरदान कर्म सिद्धांत के विरुद्ध जाकर ज्ञान साधना में सहायक हो सकता है ?
प्रति प्रश्न : ठोठ गंवार को भी यदि सरस्वती के प्रति “श्रद्धा” हो जाए, तो इसका अर्थ ही ये है कि उसमें इतनी “बुद्धि” तो आ गयी है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए “साधना” किसकी करनी चाहिए.
विशेष: सरस्वती ज्ञान की देवी है, ज्ञान देती है, फिर भी कितने जन उसकी रोज पूजा अर्चना करते हैं? क्या उन्हें ज्ञान नहीं चाहिए?
उत्तर है: नहीं चाहिए, उन्हें मौज मस्ती चाहिए.
विशेष: यदि क्षयोपशम की बात ही सबसे ऊँची हो तो फिर हमें गुरुओं के “आशीर्वाद” की बात करनी नहीं चाहिए.
प्रश्न: गुरुओं के पास कितने जन मात्र ज्ञान के लिए जाते हैं?
उत्तर: विरले ही हैं जो मात्र ज्ञान के लिए उनके पास जाते हैं. ज्यादातर की आशा तो ये होती है कि उनका आशीर्वाद मुफ्त में मिल जाए और सारे काम बन जाएँ.
वास्तविकता ये है कि हमें पुरुषार्थ भी करना होगा और गुरुओं का आशीर्वाद भी लेना होगा. अरिहंत का स्मरण, दर्शन और पूजन करके पुण्य को प्रकट करना होगा. जो पंथ ये मानते हैं कि हमने तो पैसा अरिहंत के दर्शन और पूजन किये बिना कमाया ही है, तो वो इस बात को भी स्वीकार कर लें कि विदेशी लोग भी कमाते ही हैं बिना देव दर्शन और स्मरण के. फिर तो आप भी अरिहंत की बात करना छोड़ दें.
6. देवी सरस्वती व्यंतर निकाय की हैं या भवनपति निकाय की ? उनका निवास स्थल कहाँ है ? हिन्दू एवं जैन परंपरा में प्रचलित देवी का स्वरुप एक ही है न या भिन्न है ?
उत्तर: व्यंतर निकाय की है. हिन्दू और जैन परंपरा में प्रचलित देवी का स्वरुप एक सा ही है.
(सरस्वती का निवास स्थल कहाँ है, वो इस पोस्ट में गर्भित रूप से लिख दिया गया है).
7. सोलह विद्या देवियाँ , पंचांगुली देवी आदि देवियाँ भी ज्ञान के विविध क्षेत्रों की अधिष्ठायिका हैं । इनका देवी सरस्वती से कुछ सम्बन्ध है ?
उत्तर: विद्या की देवी हो और सरस्वती से कोई सम्बन्ध ना हो, ये कैसे हो सकता है!
- सुरेन्द्र कुमार राखेचा “सरस्वतीचन्द्र”