“नशा” नाम का या “शान” का?
“शान” का उल्टा “नशा” होता है.
शान में जो जीता है, वो नशे में जीता है.
क्योंकि उसका “अस्तित्त्व” झूठ पर खड़ा किया गया है.
पैसा आ जाने के बाद ज्यादातर व्यक्ति या तो “शान” से जीने लगते हैं
या फिर भागते हैं “नाम” के लिए.
दोनों में ही एक प्रकार का नशा है.
एक विश्लेषण देखिये:
१. मरने के बाद एक डॉक्टर, वकील, CA , ज्योतिषी, इत्यादि को लोग ज्यादा से ज्यादा 20 साल याद करते हैं. यानि आने वाली पीढ़ी उनको याद नहीं करती.
२. एक दानवीर सेठ का नाम ज्यादा से ज्यादा 50वर्ष तक चलता है, यानि आने वाली 2 पीढ़ी के बाद उन्हें शायद ही कोई जानने की चेष्टा करता है कि उसने दान क्यों दिया था.
३. “मंदिर” बनाने वाले का नाम लगभग 100वर्ष तक चलता है. यानि आने वाली 4 पीढ़ी के बाद बहुत कम लोग उन्हें जानते हैं.
४. संघ के अच्छे संत को लोग लगभग 200 साल तक जानते हैं यानि आने वाली 8 पीढ़ी तक उन्हें लोग याद करते हैं.
५. गच्छ या पंथ की स्थापना करने वाले वाले आचार्य को लगभग 1000 या इससे भी अधिक वर्षों तक जाना जाता है. यानि आने वाली कम से कम 40 पीढ़ी तक लोग उन्हें जानते हैं.
अब बताओं नाम कमाने के लिए क्या करना चाहिए?
बुद्धि क्या कहती है? बनना है संत?
अपने “वंश” की बात करने वाले ज्यादातर लोगों की अपने पूर्वजों की 4 पीढ़ी का भी पता नहीं होता.
चार पीढ़ी से चली आ रही पैतृक संपत्ति (ancestral property) भी विरलों के पास ही मिलती है.
(अपवाद हर जगह मिलते हैं, ऊपर की बात को सामान्य दृष्टिकोण तक ही समझें).
फोटो: एक भवतारी (देवलोक का आयुष्य पूरा करके मोक्ष जाने वाले) खरतर गच्छ नायक अति प्रभावक प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्त सूरी.
जिन्होंने ओसवाल वंश की अनेक जातियों का उद्धार किया.