अरिहंत का ज्ञान अनंत होता है,
उसका अनंतवाँ भाग ही उपदेश में आ पाता है,
उसका अनंतवाँ भाग गणधर सूत्र बद्ध करते हैं,
उसका अनंतवाँ भाग वर्तमान आचार्य जान पाते हैं,
उसका अनंतवाँ भाग हमारी बुद्धि ग्रहण कर पाती है.
यदि ये बात भी हमारी बुद्धि स्वीकार कर ले,
तो आचार्यों को अरिहंत भगवान जैसा
मानने का भ्रम एक झटके में टूट जाए!
हमारी चेतना भी जाग्रत हो जाए कि
हमें कितना पुरुषार्थ करना है!
यद्यपि अरिहंत की शरण से ये कार्य अत्यंत सरल हो जाता है, परंतु उनकी आज्ञा मानने में लापरवाही, मनमानी नहीं चलेगी.
आचार्य का कार्य है वो अरिहंत के प्रभाव को बताये,
उनकी महिमा का गुणगान करे, भक्ति करे,
इससे पूरे जैन संघ में एक रुपता आती है,
स्वयं को अलग से स्थापित करने की धृष्टता न करे
लाखों लोग मूल धर्म से च्युत होते हैं.
यहां ये बात ध्यान में रखनी है कि आचार्य द्वारा ही संघ का संचालन होता है, इसलिए वो वंदन करने योग्य हैं पूजने योग्य तो अरिहंत ही हैं.
पंच परमेष्ठी का स्थान एक जगह है,
पर एक सा नहीं है.
इसके लिए आज का एक वीडियो पोस्ट कर रहा हूं.
महावीर मेरा पंथ