मुट्ठी भर जैन और
मंदिर हर गाँव में!
इसका कारण?
पहले लगभग हर १२ वर्ष बाद अकाल पड़ता था.
कभी कभी ये अकाल १२ वर्ष तक रहता था!!
अकाल के समय हर मनुष्य को खाने के अलावा कुछ सूझता नहीं है.
थोड़े से समय में ही “धर्म” के प्रति स्मृति खो जाती है.
सुकाल आने पर अचानक मंदिर के दर्शन करने के बाद
उसकी जिन धर्म के बारे में स्मृति आती हैं.
और धर्म के प्रति “वापस” रूचि जागती है.
इसलिए “मंदिर” “सम्यक्तव” को
मजबूत करने में “आलम्बन” का काम करता है.
(ये मंदिर के बारे में बहुत छोटा
परन्तु महत्त्वपूर्ण परिचय है).
“जैन मंदिर” ऐसा स्थान है
जहाँ “भगवान” के होने की अनुभूति होती है.
जिन मंदिर में तीर्थंकरों के कल्याणक
“रोज” मनाये जाते हैं.
१. “गर्भ गृह में प्रवेश:
“च्यवन कल्याणक”
२. प्रक्षाल एवं चन्दन पूजा :
“जन्म महोत्सव,” इत्यादि.
अब भी जो ये सोचते हैं कि
जिन मंदिर जाने से “आशातना” होती है,
तो “सामायिक” करना भी बंद कर दें,
क्योंकि कौन ऐसा है जो सामायिक में लगने वाले
३२ दोष को संपूर्ण रूप से रोक पाता हो!
काफी दिनों के प्रवास के बाद यदि घर में घुसते हैं,
तो घर में तो “धूल” भर ही जाती है.
इसका मतलब ये नहीं कि घर में प्रवेश ही ना किया जाए
और “नया घर” लिया जाए.
“जिन मंदिरों” की पूजा के समय जो “आशातना” अज्ञानतावश हो रही थी,
उसका निवारण किया जाना चाहिए था,
“जिन-मंदिर” जाना “बंद” करना सोलउशन नहीं है.
छोटी छोटी बातों में मतभेद खड़े कर के नए नए सम्प्रदाय
बनाकर जैन एकता को काफी नुक्सान पहुंचा है.
साथ ही अपनी बात को ऊँचा रखने के लिए
कई बार “जिन वचन” के विपरीत “मान्यताएं” भी बनायी गयी है.
आज उन सभी की “घर वापसी” की जरूरत है.