“इअ संथुओ महायस, भत्तिभर निब्भरेण हियएण |
ता देव! दिज्ज बोहिं, भावे भावे पास जिण चंद || ५ ||”
इस प्रकार महायशस्वी श्री पार्श्वनाथ भगवान की “भक्तिपूर्वक हृदय” से स्तुति करता हूँ.
हे देव! जब तक मैं मोक्ष ना पाऊं, तब तक मुझे हर भव में “सम्यक्तत्व” की प्राप्ति हो.
“भक्ति” से क्या प्राप्त नहीं हो सकता?
बस प्रभु से प्रार्थना करें कि मुझे ऐसी “शक्ति” दें कि
मैं “सुखपूर्वक भक्ति” कर सकूँ.
और यही प्रार्थना इस श्लोक में की गयी है.
मंत्र रहस्य:-
प्रश्न: सुखपूर्वक “भक्ति” कौन कर सकता है? सुखी व्यक्ति या दुखी व्यक्ति?
उत्तर: “सुखी” व्यक्ति ही “सुखपूर्वक” भक्ति कर सकता है!
दुखी व्यक्ति तो अपने दुःख की याद से ही ऊपर नहीं ना पाता.
विशेष:-
उवसग्गहरं स्तोत्र दिखने में बहुत छोटा है पर इसका प्रभाव बहुत बड़ा है.
कहाँ बात थी महामारी मिटाने की और श्री भद्रबाहु स्वामी के भाव कहाँ पहुंचे :
ना सिर्फ जैन धर्म में श्रद्धा रखने वालों को पहले ही शब्द “उवसग्गहरं” से उपसर्ग निवारण का मंत्र दिया बल्कि कल्पतरु से भी अधिक “मोक्ष मार्ग” बताया.
फिर वो “मोक्ष” मार्ग बताने तक ही नहीं रुके,
स्तोत्र की पूर्णता तक मोक्ष पाने की “गारंटी” भी कर दी!
“उवसग्गहरं” गुणने के बाद भी किसी की छोटी मोटी इच्छाएं भी पूरी ना होती हों,
तो उसके कारण हैं :
1. “पार्श्वनाथ भगवान” की प्रतिमा को पूजन के लिए “अस्वीकार” करना.
जब हम “पार्श्वनाथ भगवान” का स्मरण करते हैं तो उनके “शरीर” का ध्यान करते हैं कि नहीं? किसी का नाम लें और उसका शरीर हो ही नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता.
विशेष: नवकार मंत्र बिना किसी आलम्बन (सहायता) के “सिद्ध” हो जाता है क्योंकि नवकार में किसी के भी “रूप” का वर्णन नहीं है.
2. उच्चारण सही नहीं कर पाना.
3. “काम बनेगा या नहीं” इसकी “शंका” ज्यादा होना और “श्रद्धा” कम होना.
4. मुंह से कुछ “अवांछनीय” शब्द हरदम बोलना जैसे –
A. जाप “तो” कर रहा हूँ, “अब” जो होगा वो देखा जाएगा.
(यहाँ “तो” शब्द बड़ा बेकार है – जो होगा वो देखा जाएगा – ये शब्द ये प्रकट करते हैं कि जाप करने वाले को “मंत्र” पर “श्रद्धा” नहीं है तभी तो बोलता है कि जो होगा वो देखा जाएगा- तो फिर “मंत्र जाप” करने का अर्थ ही क्या रहा)?
B. अभी “तो” चक्कर में फंसा हुआ हूँ.
C. “पता” नहीं आगे क्या होगा.
(ये शब्द भी “मंत्र” पर “श्रद्धा” नहीं है” – ये साफ़ प्रकट करते है).