कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग
इन तीनों का समन्वय हो भी सकता है,
नहीं भी !
विश्लेषण:
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- जो “कर्म” पर “ही” फोकस्ड हैं,
उनका जीवन शुष्क हो जाता है.
उनका मानना है कि “कर्म” को समता से भोग लो
और मोक्ष पा लो.
(दूसरा कोई उपाय करने की जरूरत नहीं है).
- “ज्ञान योग” में व्यक्ति स्वाध्याय में लगा रहता है.
कर्म पर अधिक बल ना देकर ,
भक्ति को किनारे रखकर
“ज्ञान” की साधना करता है.
(उसका विश्वास होता है कि मनुष्य जीवन में रहकर
“ज्ञान” ही प्राप्त करना है, इसलिए ज्ञान की साधना ही क्यों न की जाए.
इसलिए वो शास्त्र पढ़ने पर अधिक जोर देता है).
परिणाम :
अलग अलग शास्त्रों में सामंजस्य बना नहीं पाता
इसलिए थोड़ी सी शंका भी अधिक भ्रम को जन्म देती है.
(पढ़ें : गणधरवाद)
- *भक्ति योग* वाला ऊपर वाले
दोनों से बहुत अधिक सुखी होता है.
प्रभु भक्ति की बात आते ही आनंद से भर जाता है.
उसका कर्म है : प्रभु भक्ति करना
उसे ज्ञान है : प्रभु के स्वरुप का, उनके गुणों का, उनकी वाणी का.
उसकी भक्ति है : प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण
विशेष:
शास्त्र पढ़ने वाले भी “भक्तामर” को बहुत प्रभावी मानते हैं.
मतलब :
स्तोत्र पढ़कर (पढ़ना भी एक *कर्म* ही है) व्यक्ति कर्म भी काटेगा,
स्तोत्र पढ़कर व्यक्ति *ज्ञान* भी प्राप्त करेगा कि प्रभु का स्वरुप कैसा है और उनका प्रभाव कैसा है
स्तोत्र पढ़कर व्यक्ति प्रभु भक्ति भी करेगा और एक दिन प्रभु जैसा मोक्ष पद भी प्राप्त कर लेगा.
अब कहो:
सिर्फ कर्म काटने की बात सोचनी है
या शास्त्र पढ़ने की !
तीसरा ऑप्शन “भक्ति योग” सबसे सरल है कि नहीं ?
*महावीर मेरापन्थ*