मालव देश के राजा भर्तृहरि को उनकी सेवा और धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर एक महात्मा ने “अमरफल” दिया ताकि उसे खाकर वो धर्म पताका फैलाता रहे.
(संतों का आशीर्वाद भी उन्हीं पर होता है जो धर्मनिष्ठ होते हैं – संतों से आशीर्वाद भी माँगना नहीं पड़ता).
अपनी सबसे छोटी और रानी पिंगला पर उनका अत्यंत स्नेह था इसलिए ये फल उन्होंने पिंगला को दे दिया.
(ये सोचकर यदि “रानी” ही नहीं रही, तो मैं जी कर क्या करूँगा – मोह की दुर्दशा )
रानी को “अश्वपाल” (घोड़ों की देखभाल करने वाला) पर प्रेम था, उसे ये फल उसे दे दिया.
(रानी ने सोचा – ये ही नहीं रहा तो मेरा “जीवन” किस काम का – काम की दुर्दशा)
“अश्वपाल” को “रानी” से प्रेम Status Symbol था, हकीकत में वो एक “वेश्या” को चाहता था.
(उसने सोचा- यदि ये ही नहीं रही तो मैं “सुखी” नहीं रहूँगा – घोर चरित्रहीनता)
“वेश्या” ने “चिंतन” किया :
मैं अनंतकाल तक “अमर” रह कर क्या करुँगी?
मेरा जीवन तो पहले ही नरक जैसा है.
लम्बे जीवन से तो और ज्यादा लोगों को मेरे कारण नरक मिलेगी.
इसलिए ये फल निश्चित रूप से राजा को देना चाहिए.
चिंतन:
लोगों में उसका “चरित्र” कैसा और “मन” में “कैसा?”
उसका चरित्र नीचा किस कारण ?
“लोगों के कारण”
क्योंकि पब्लिक ही तो उसके पास आती है.
असल में “चरित्र” नीचा किसका?
उसने वो “फल” राजा को दिया.
राजा “चमका” – ये क्या?
जांच करवाई.
“जांच” की दिशा हरदम “उलटी” चलती है.
क्योंकि “शुरुआत” कहाँ से हुई थी,
उसका पता “अंत” में क्या हुआ था, वहां से होती है.
(चिंतन: हमारी “आत्मा” की भी “जांच” करना चाहें तो “आज” हम “कहाँ” हैं, वहीँ से करनी होगी).
पता किया “वेश्या” से कि ये फल कहाँ से आया?
फिर “अश्वपाल” का नंबर लगा.
फिर “पिंगला” का
फिर…..”राजा” को पता पड़ा कि उसने “भूल” नहीं की.
वो तो “स्वयं” “भूला” हुआ है और
“राज-पाट” विक्रमादित्य (जो सम्राट “विक्रमादित्य” के नाम से प्रसिद्ध है) को सौंप कर “सन्यासी” बना.
विशेष:
आप सोच रहे होंगे कि इस कहानी का “जैनमंत्राज” से क्या सम्बन्ध है?
गौर से देखेंगे तो “महात्मा” बहुत पहुंचे हुवे थे (नहीं तो अमरफल कहाँ से लाते),
(असल में तो वो फल मंत्रित था और उसे वही खा सकता था जिसके लिए वो मंत्रित किया गया था – ये है मंत्र रहस्य – जो मंत्र जिसके लिए होता है, उसे ही काम आता है. बाकी तो मन्त्रों की किताबें आजकल खूब मिलती हैं, यंत्रों की भी और तंत्रों की भी).
उनका अमरफल “राजा” के लिए ही था इसलिए “दूसरा” उसे खा भी नहीं पाया.
अब आगे बढ़ें:
एक दिन भिक्षा के लिए राजा पहुंचा “पिंगला” के पास!
“भिक्षा दे दे मैया….पिंगला…जोगी खड़ा है द्वार…..मैया पिंगला..”
उसके मन में “पिंगला” कोई दोषी नहीं बल्कि “माता” स्वरुप हो गयी क्योंकि उसी के “कारण” तो वो “सन्यासी” बन पाया!
सन्यासी भर्तृहरि और मैया पिंगला
ये है मूल भारतीय संस्कृति – जहाँ “DIVORCE” का कोई “स्थान नहीं है.
(इन सबका गहरा विश्लेषण, चिंतन और मनन करने की जरूरत है).