“ईमानदार” की कोई “क़द्र” नहीं है, ऐसा लोग कहते हैं.
ऐसा कहने वाले लोग क्या खुद “बेईमान” को नौकरी पर रखना पसंद करेंगे?
और तो और क्या खुद “बेईमान” कहलाना पसंद करेंगे?
उत्तर साफ़ है.
गहराई में उतरे बिना कुछ लोग कुछ भी बोल देते हैं और बाकी सभी लोग हाँ में हाँ मिलाये जाते हैं.
अरे! झूठ बोलने वाला भी हर बात झूठ नहीं बोल सकता.
उसे यदि भूख लगी है, तो ये नहीं कह सकता कि मुझे भूख नहीं लगी है.
झूठे व्यक्ति अपने झांसे में दूसरों को लाने के लिए पहले “सत्य” अपनाते हैं, ताकि उन पर लोगों का “विश्वास” बैठ जाये.
पर ये “झूठ” तब तक चलता है जब तक “सत्य” प्रकट नहीं हो जाता.
अब आगे चलें!
हमारी भगवान के प्रति “भक्ति” कैसी है?
“सच्ची” या “झूठी?”
जवाब खुद को ही देना है.
“सच्ची” तो तब है, जब हमारा सम्बन्ध वैसा ही है जैसा एक बच्चे का अपनी माँ से होता है.
माँ का पल्लू पकडे पकडे बच्चा हर जगह साथ साथ चलता है. यदि हम इतना भी समझ लें जो हमने बचपन में किया है, तो भी हम “सच्चे भक्त” बन सकते हैं.
शंका:
“सच्चे भक्त” बनने से क्या समस्याएँ सुलझ जाएंगी?
उत्तर:
ये “शंका” मन में आई ही कैसे?
“तीर्थंकरों” के “पुण्य” पर भरोसा जो नहीं है.
“तीर्थंकरों” ने जो कहा है, वो करने की तैयारी जो नहीं है.
“माँ” भी अपने बच्चे को अच्छी सीख ही देती है, वही काम “भगवान” भी करते हैं.
यदि “माँ” के कहे हुवे वचनों पर “शंका” है, तो फिर “भगवान” भी उसे ‘सुधार’ नहीं सकते.
प्रश्न:
पर व्यवहार में तो कई लोग “दगाबाजी” करके खूब पैसा कमा लेते हैं?
उत्तर:
इससे हमें क्या?
जो “डाका” डाल कर पैसा कमाते हों, तो क्या हम भी “डाका” डालें?
हां, एक बात और:
आँख बंद करके बड़े बड़े “ब्रांडेड आइटम्स” लोग क्यों खरीद लेते हैं?
क्योंकि उनके प्रोडक्ट्स की क्वालिटी है!
क्या ये “ब्रांड वैल्यू” एक दिन में बनती है?
उत्तर आपको देना है.
और ये भी निश्चित करना है कि हमें जीवन में करना क्या है.