मनुष्य लोक और देवलोक की आपस में कोई तुलना नहीं हो सकती.
सोने के सिंहासन भले देवलोक में हैं,
मनुष्य लोक में भी सोने का प्रचलन अत्यधिक है.
रत्नों से जड़ित कंगूरे भले देवलोक में है,
रत्न मनुष्य लोक में भी पाये जाते हैं.
देव लोक में देव विमान होते हैं,
मनुष्य लोक में भी विमान हैं ही.
“मित्रता” और “शत्रुता” देव लोक में है,
ये तो मनुष्य लोक में भी है.
“देवियों” को दूसरे देव भी भोगते हैं,
इस मामले में “मनुष्य लोक” ज्यादा अच्छा है
जहाँ “महाव्रत” नाम की कोई बात तो है.
भले ऋद्धि के मामले में मनुष्य लोक देव लोक के सामने तुच्छ है
परन्तु “संतोष” के मामले में मनुष्य लोक के आगे देव लोक तुच्छ है.
देवलोक में इंद्र का जो “ऐरावत” हाथी होता है,
वो भी “देव” ही होता है
परन्तु जब जब “इंद्र” को “सवारी” करनी होती है,
तब तब उसे “हाथी” बनना पड़ता है.
हर देव को “इंद्र” की आज्ञा में रहना पड़ता है.
हरिणगमैषि देव का मुख “हिरण” का होता है.
माणिभद्र वीर का मुख “वराह” (सूअर) का है,
क्या अब भी “देवलोक” जाना स्वीकार है?
कदाचित खुद का मुंह
हिरण, घोड़े, हाथी या सूअर का हो,
तो भी क्या देवलोक स्वीकार होगा?
अब अंतिम निर्णय:
देव लोक वाला आयुष्य पूरा होने पर ज्यादातर नीच गति में आता है,
मनुष्य लोक वाला “देवलोक” तो क्या, “मोक्ष” तक पा लेता है.