“मति-ज्ञान” के बिना “श्रुत-ज्ञान” “अधूरा” है
और
“श्रुत ज्ञान” के बिना “मति-ज्ञान” “अधूरा” है.
वर्तमान में ये दो ज्ञान – मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान,
अभी भी सम्पूर्ण रूप से विद्यमान हैं.
भगवान् की वाणी है – “श्रुत-ज्ञान” !
सम्पूर्ण रूप से “शुद्ध” !
हमारी “मति” उसे ग्रहण कर सकती है,
यदि “मन” हो “शुद्ध” !
बस उसके लिए “अत्यन्त चाह” हमें ही
उत्पन्न करनी होगी.
कई साधू “श्रुत-ज्ञान” में
अपना पूरा जीवन “झोंक” देते हैं.
फिर भी “विशाल जैन साहित्य” में मात्र एक “डुबकी” लगा पाते हैं.
और तो और,
अरिहंत की कृपा से उन पर “विशिष्ट विवेचन” भी कर पाते हैं.
आश्चर्य तो इस बात का है कि
फिर भी ये नहीं कह पाएंगे कि
“भगवान्” ने “शत-प्रतिशत” ऐसा ही कहा है.
कारण?
जैन धर्म के सूत्र “अत्यन्त गूढ़” हैं.
एक-एक सूत्र पर लाखों व्याख्यान हो सकते हैं.
पर “अंत” में वो “नवकार”
पर ही आकर “स्थित” हो जाएंगे.
ऐसा क्यों?
पहला प्रश्न है – क्या “लाखों” व्याख्यान सुनाने की तैयारी है?
याद रहे : समझना भी पड़ेगा, समझ ना आये तो कोशिश भी करनी होगी.
फिर भी ना समझ आये, तो “साधना” भी करनी होगी.
“साधना” में “वर्षों” तक “जुटे” रहना पड़ेगा
“धैर्य” की भी “विकट-परीक्षा” होगी.
अंत में सब कुछ “आत्मा” पर ही “स्थित” होना होगा,
सम्पूर्ण जैन धर्म का यही सार है:
“आत्म-तत्त्व” को प्राप्त कर लेना.