नवकार सिद्धि
“एक” ही “आचार्य” को जानते हों,
और उन्हें नमस्कार किया
तो सिद्धि मिल सकती है
पर दूसरे आचार्य को “जानते” हुवे भी
नमस्कार करने का भाव “नहीं” हुआ
तो “नवकार सिद्धि” नहीं मिलेगी.
(नमो “आयरियाणं” में
सभी सम्प्रदाय के आचार्यों को नमस्कार करना होता है
जो जैन धर्म से सम्बंधित हैं और अरिहंत की आज्ञा में हैं).
इसी प्रकार
“एक” ही साधू को जानते हों और उन्हें नमस्कार किया
तो “नवकार सिद्धि” मिल सकती है
पर दूसरे सम्प्रदाय के साधूओं को “जानते” हुवे भी
नमस्कार करने का “भाव” नहीं हुआ
तो नवकार सिद्धि नहीं मिलेगी.
(नमो लोए सव्व साहूणं में
“सभी” साधूओं को नमस्कार करना होता है
– एक भी साधू ना छूटे,
भले अपने सम्प्रदाय में उनके द्वारा पाले जानी वाली
“क्रिया” पर सहमति ना हो)
आँखें खोलने वाला उदाहरण
उज्जैन में “कल्याणमन्दिर” महास्तोत्र की रचना करके
शिवलिंग में से “अवन्ति पार्श्वनाथ” को प्रकट करने वाले
शासन प्रभावक श्री सिद्धसेनदीवाकर को
उनके गुरु ने 12 वर्ष के लिए “संघ से निकाला” था,
कोई गोचरी पानी बंद करने का फरमान नहीं दिया था.
ऐसा करके संघ से बाहर निकले
साधूओं के प्रति “द्वेष” रखने से
“श्रावकों” को कौनसी “गति” मिलेगी,
ये विचारणीय है.
( “स्वीकार” ना हो तो “समता” की बात हो ही नहीं सकती
भगवान् महावीर की “मित्ति मे सव्व भूएसू”
– सब जीवों के प्रति मित्रता की बात का भी “खंडन” होता है)
एक भी प्राणी के प्रति द्वेष (और वो भी साधू के प्रति?)
भव-भवों तक “मुक्ति” ना होने का “प्रबंध” करना है
स्वयं के लिए !
है तैयारी?
महावीर मेरापंथ