70-75 की उम्र का व्यक्ति आजकल लगभग हॉस्पिटल में अपनी अंतिम साँसे लेता है.
दो दिन पहले उसका बोलना बंद हो जाता है.
वेंटीलेटर से श्वास आती जाती है, कुछ किस्सों में तो सिर्फ “मशीन” ही “परफॉर्म” करती है
और रिश्तेदार ये समझते हैं कि इलाज चल रहा है.
जैन धर्म में “अंतिम-समय” में “नवकार” गुणने-सुनने का बड़ा महत्त्व है.
“जीव” का “भाव” यदि मरते समय बिगड़ जाए तो “भव” बिगड़ जाता है
और “ऊंचा” हो, तो भव सुधर जाता है..
बात चल रही थी 70-75 के वृद्ध व्यक्ति की.
उसका दो दिन पहले बोलना बंद होने की.
अब बात करते हैं उनकी जो अपने “जीवन” के “अंतिम समय” में भी “लोक-कल्याण” के लिए बोलते हैं और लगातार बोलते हैं तीन दिन तक!
आधा-एक घंटा लगातार बोलने वाले को “पानी” चाहिए.
कंठ सूख जाता है.
इधर “समाज” को “दिशा” दिखाने वाले को अपने “अंतिम-समय” में भी “लोक-कल्याण” सूझता है जबकि स्वयं को कुछ भी “प्राप्त” करने की इच्छा भी नहीं होती (पुण्य भी नहीं)!
कैसा आश्चर्य है?
कोई “सिंहासन” प्राप्त करने की चाहना नहीं,
कोई “प्रशंसा” की चाहना नहीं.
कोई नोबल पुरस्कार की चाहना नहीं, (लौटाने का तो प्रश्न ही नहीं).
जो कुछ प्राप्त है, उसे ज्यादा से ज्यादा देर तक ज्यादा से ज्यादा लोगों में ज्यादा से ज्यादा बांटना.
“छुपाने” की तो कोई “बात” ही नहीं.
और ये भी तब जब उपवास हो, पानी भी ना पीयें और बोलते जाएँ.
(आजकल तो “सुनने” वाला “कंटाल” जाता है, बोलने वाले माइक पर बकवास करते जाते हैं).
कल्पना करो हम “सभा” में हैं.
“भगवान महावीर” समवसरण” में विराजमान हैं.
“अपूर्व कान्ति” है चेहरे पर “संयम” की. उम्र है 72 वर्ष!
“इंद्र” हाथ जोड़े हुवे है.
“करोड़ों” सुर-नर-किन्नर और तिर्यंच बैठें हैं
“सुन” रहे हैं – तीर्थंकर महावीर की “अंतिम” वाणी!
अब पहले ये निर्णय कर लो कि भगवान की “अंतिमवाणी” सुनना चाहोगे
या
सिर्फ देखना चाहोगे दिवाली की “”रौनक“”
अपने बीबी-बच्चों के साथ!
(“माँ -बाप” के अंतिम वचन कोई भूलता नहीं है, ये तो “भगवान” के वचन हैं जो हर “श्रावक-श्राविका” को सुनने और अपनाने लायक हैं).