Namaskar aur ashirwad

नमस्कार और आशीर्वाद : 10

यदि ये पूछा जाए कि “हमारे” जीवन की
सबसे अच्छी घटना कौनसी है
तो हमें काफी विचार करना पड़ेगा.
अंत में निर्णय यही आएगा कि
हमारा “जन्म” ही हमारे जीवन की
सबसे श्रेष्ठ घटना है – हमारा “जन्म

 

सबसे आश्चर्यजनक बात तो ये है कि
हमारे “जन्म’ के समय हमें ही पता नहीं होता कि
हमारा “जन्म” हुवा है!

यदि “यही” नहीं होता तो कुछ भी
उपलब्धि” नहीं हो पाती.
इसलिए अपने “जीवन” का “आनंद
मनाएं.

 

अपने जीवन का “आनंद” लेने का  सबसे
अच्छा तरीका बताया है :तीर्थंकरों ने.

आज तीर्थंकर के साक्षात दर्शन हम नहीं कर सकते,ऐसी सामान्य धारणा है.
परन्तु  शास्त्र कहते हैं कि
“जिण पड़िमा जिण सरखी”
-जैन धर्म में ये व्यवस्था है कि हम उनके रोज
दर्शन” कर सकें.

 

एक “माँ” अपने “पुत्र” का दर्शन करके “धन्य” होती है.
वैश्णव सम्प्रदाय   में तो “माँ” अपने “पुत्र” में ही “बाल गोपाल” का दर्शन करती है
जब वह घुटनों के बल चलने लगता है,
अपने पुत्र को नहलाती है, तो उसे यही लगता है कि मैं “कृष्ण” को “नहला” रही हूँ.
उसकी इस भावना को हम कौनसा दरजा  देना चाहेंगे.
बालक” भगवान का रूप होता है, क्या ये सर्वमान्य नहीं है?

जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए भी ऐसी ही भावना है,
परन्तु उससे भी बहुत “उत्कृष्ट!”
कैसे?

 

“तीर्थंकर” को जितने भी विशेषण दिए जाएँ, वो कम हैं.
उन्होंने जगत को जो दिया है, उसको सूत्र रूप (छोटे रूप) में गुंथा है गणधरों ने,
उसका विस्तृत विश्लेषण किया है आचार्यों ने, पढ़ाया है उपाध्यायों ने और
परंपरा निभायी है साधुओं ने.
श्रावकों का भी इसमें योगदान कम नहीं है.
यदि ‘भक्त” ही ना हों, तो “भगवान” की महत्ता जगत में किसे “बताई” जायेगी?
यदि ‘भक्त” ही ना हों, तो “भगवान” की महत्ता जगत में कैसे “जानी” कैसे जायेगी?
जिनशासन आज जीवंत है तो साधुओं के कारण और श्रावकों के कारण!

 

साधुओं को “तीर्थंकरों” के प्रति अहोभाव है
श्रावकों को “साधुओं” के प्रति अहोभाव है.
तीर्थंकरों को “श्रीसंघ” के प्रति अहोभाव है.

कैसी शानदार व्यवस्था दी है तीर्थंकरों ने!
क्या उनके दर्शन करते समय ये भाव आते हैं हमारे मन में?

जब हमारा  “जन्म” हमारे लिए जीवन की सबसे श्रेष्ठ घटना है तो जगत उपकारी तीर्थंकरों के जन्म की घटना को हम कैसे मनाएं? आगे पढ़ें  : नमस्कार और आशीर्वाद : 11

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