नमो सिद्धाणं

“सिद्ध” होने के बाद तो “आत्मा” कोई नाम से नहीं पुकारी जाती. “सिद्धों” के मंदिर ना होने का ये भी एक कारण है.

जैन धर्म “जिन धर्म” के नाम से जाना जाता है ना कि “सिद्ध धर्म” के नाम से

जबकि “तीर्थंकर” भी “नमो सिद्धाणं” कहकर “सिद्धों” को नमस्कार करते हैं.

यहाँ कोई तर्क कर सकता है कि नवकार में भी तो “अरिहंतों” का नाम नहीं है.
तो तुरंत उत्तर आता है : हमें लोगस्स तो दिया हुआ है ही और छ: आवश्यक में से दूसरा आवश्यक “चौवीसत्थो” के रूप में लोगस्स ही आता है. (आवश्यक का मतलब जिसे करना जरूरी है). और जहाँ पर भी रूप की बात आती है तो इसका मतलब उसका कोई आकार है ही! इसीलिए “जिन-मंदिर” की सार्थकता है भक्ति बढ़ाने के लिए!

 

ध्यान रहे “गुरुओं” को भी हम “आकार” के रूप में ही देखते और नमस्कार करते हैं. वरना “गुरु” का “स्मरण” कैसे होगा? बिना आकार के गुरु का स्मरण नहीं हो सकता.

आज से प्रण कर लो कि जो भी जैन सूत्र और मंत्र बोलेंगे वो जैन धर्म पर सम्पूर्ण श्रद्धा रख कर ही बोलेंगे और जिस दिन “श्रद्धा” नहीं रहेगी, उसी दिन “मंत्र” जाप बंद कर देंगे.

आप देखेंगे कि आप का अपना “मन” ही नहीं कहेगा कि अब “उवसग्गहरं” गुणना बंद कर दें क्योंकि काम हुआ नहीं तो क्या हुआ !

 

ये है संस्कार का प्रभाव!

“ध्यान” की एकदम गहराई में जैसे जैसे आगे बढ़ेंगें तो पाएंगे की भाव-धारा  “सिद्ध शिला” तक भी जाती है. (जा “सकती” है ये बात नहीं है). क्षण मात्र भी जिस दिन ये अनुभव होगा, उसी दिन जीवन “धन्य” हो जाएगा और “जिन-धर्म” पर श्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी.

जैन धर्म में जिन्हें “निराकार” का “ध्यान” करना है, उनके लिए “नमो सिद्धाणं” बहुत ही काम का है.  और यहीं “अनेकांतवाद” प्रकट होता है. “निराकार” का “ध्यान” तभी हो पायेगा जब स्वयं “शरीर के ध्यान (संभाल)” से ऊपर उठे और “आत्मा” का चिंतन करने लगे.

और यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है कि “हम” “आत्मा” में “स्थिर” होने का जोरदार प्रयास करें. 

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