मामूली सा प्रकाश देने वाले
“दीपक” को भी
दिवाली के समय
रगड़-रगड़ कर चमकाया जाता है.
प्रश्न है :
“आत्म-ज्योति”
को प्रकाशित करने वाला
“दीपक” अभी कहाँ है?
(चमकाने की बात तो बाद में होगी).
“दिये” की “लौ” को
अपनी “आत्म-ज्योति”
से जोड़ने का प्रयास करें.
“दिया जलाना”
मात्र एक “क्रिया” नहीं है.
वो एक “आत्मानुभूति”
करने का एक प्रयास है.
“भगवान् महावीर” (Lord Mahaveer) का निर्वाण
अमावस्या की रात्रि को हुआ.
घोर अँधेरे में भी “दिव्य प्रकाश” हुआ.
“लाखों-करोड़ों दीपक”
दिवाली पर इसीलिए “प्रकट” किये जाते हैं.
(“जलाए” नहीं जाते).
अपने “अहम” (ego) भाव के कारण
व्यक्ति कहीं भी “समर्पित” नहीं हो पाता.
जो “समर्पित” नहीं होना चाहता,
उसके लिए भी “रास्ता” है.
वो “पुरुषार्थ” में लग जाए
“भगवान् महावीर” की तरह !
फिर भी
“पुरुषार्थ” के प्रति तो “समर्पित” होना ही पड़ेगा.
अब चॉइस आपकी.
हम “सुखी” कब होंगे?
“जप” करने से “शांति” मिलेगी
तो ये भी “मान” लें कि
जब तक “मन” में “शांति” नहीं होगी
तब तक “जप” होगा भी नहीं.
ये हम जानते है.
परन्तु हम “मानते” नहीं.
जिस दिन “मान” लिया
यानि “स्वीकार” कर लिया
उसी समय
आज तक जो कर्म किये हैं
उनके प्रति “पश्चात्ताप” हुवे बिना नहीं रहेगा
और भाग-दौड़ अपने आप बंद हो जायेगी.
(समर्पण : उन जैनों को जो ये कहते हैं
कि उन्हें “धर्म” करने के लिए जरा भी “फुर्सत” नहीं हैं).