sadhna ka bal

साधना का बल

“साधना के बल” के आगे
“सिद्धियाँ” कुछ भी नहीं हैं.
“सिद्धियाँ” तो उसकी
“दास” होती हैं.

“साधना” की शुरुआत में
“मन” बहुत विचलित रहता है.
जैसे कि “गाड़ी” स्टार्ट करते समय
उसके “स्टार्टर” में से घssरर घssरर
की आवाज आती है.
जितनी ज्यादा रेस देंगे,
उतनी ज्यादा आवाज आती है.
इसलिए साधना की शुरुआत में
मन बहुत अधिक विचलित हो
तो उसे “सामान्य” ही समझें.
“शुध्दि” की प्रक्रिया में
जो सबसे ज्यादा “अशुद्ध” होता है,
वही सबसे “ऊपर” आता है.

“अशुद्ध” मन को
“शुद्ध” करने की क्रिया वैसी ही है
जैसे कि “अशुद्ध’ पानी को
“शुद्ध” (फ़िल्टर) करने की.

जब बोलते समय “वाणी” रुक जाए,
समझें अब आगे का “स्टेप” बहुत “कठिन” है.
जब लिखते समय “कलम” रूक जाए,
समझें अब आगे का “स्टेप” बहुत “ऊँचा” है.

“मन” किसका है?
“शरीर” का या “आत्मा” का?
जिसने “शरीर” का माना है, वही दुखी है.
जिसने “आत्मा” का माना है, वही सुखी है.

“आत्मा” ने “शरीर” धारण किया है
ना कि
“शरीर” ने “आत्मा” को “धारण” किया है.
सड़क पर खड़ी चमचमाती कार लोगों को आकर्षित करती है
भले ही उसका “इंजन” खराब ही क्यों ना हुआ हो!
कार के मालिक से पूछो
कि वो उस कार से
सुखी है या दुखी.

जिसकी “आत्मा” “आनंद” में है,
उसका “शरीर”
“आनंद-महल” के समान है.

 

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