जैन धर्म के अनुसार
त्रिखण्डाधीश्वर लंकाधिपति प्रतिवासुदेव रावण के
भव्य राज महल के गृह मंदिर में
नीलरत्नमय “श्री मुनिसुव्रत भगवान्” की
अलौकिक प्रतिमा विराजमान थी.
जिसकी वो नित्य पूजा करते थे.
अष्टापद तीर्थ पर जिन मंदिर में अपूर्व भक्ति करते हुवे
उन्होंने “तीर्थंकर” नाम कर्म का बंध किया.
वर्तमान में अभी “नरक” में है
परन्तु आगे आने वाले भव में तीर्थंकर बनेंगे
और उनका प्रमुख गणधर बनेगा :
सीता का जीव !
एक भव में किया हुआ “राग” मुक्त होने वाले
और संसार को उपदेश देकर अनेकों को तारने वाले
देवाधिदेव तीर्थंकर
के जन्म पर भी नहीं छूटता.
परन्तु जैन धर्म की ये महानता है कि जो “सच” है,
उसे सबके सामने लाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता.
इस विषय पर बहुत विवेचना हो सकती है.
क्योंकि हिन्दू धर्म इसे “स्वीकार” नहीं करता.
जैन धर्मियों का ये दुराग्रह भी नहीं होता कि
कोई उनकी बात स्वीकार करे.
क्योंकि “अंतिम-निर्णय” लेने में हर व्यक्ति स्वतन्त्र है.
पर हाँ,
फल भुगतने में नहीं.