“माँ” कहने के साथ ही “माँ” का चेहरा सामने आ जाता है.
जिसके साथ हमारा गहरा सम्बन्ध होता है, उसका नाम लेते ही उसका चेहरा तुरंत हमारे सामने आ जाता है.
“भगवान” कहने के साथ ही “भगवान” का स्वरुप सामने आ जाता है.
पर इसमें एक बिंदु की भी लिखने या बोलने में गलती करें, तो अनर्थ हो जाता है.
जैसे भगवान को भंगवान कहें, तो कैसा लगेगा?
कोई भी “शब्द” लिखो या कहो, क्या उसका अर्थ सभी के लिए एक सा होता है?
कुछ लोग कहते हैं कि मैं “भगवान” को नहीं मानता!
कुछ लोग कहते हैं कि मैं “पत्थर” में भगवान को नहीं मानता!
“पत्थर” तो “पत्थर” है!
हम उनको क्यों पूजें?
भाई साहब! रूपया भी तो कागज़ का बना हुआ टुकड़ा है.
पर हम उसे “करेंसी नोट” कहते हैं.
करेंसी मतलब “चलन” यानि जिसे हम तो क्या “भिखारी” भी स्वीकार करता है.
अब भाई साहब कहेंगे – देखते नहीं उस कागज़ और करेंसी के कागज़ में कितना फर्क है.
एक गवर्नमेंट एप्रूव्ड है, दूसरा नहीं.
तो फिर “वाल पेपर” का भाव भी तो “हज़ारों” में चलता है. इस पर आप क्या कहेंगे?
भाई साहब: देखो सर मत खाओ, जाकर आजकल के “वाल पेपर” की क्वालिटी देखो!
सही कहा, भाई साहब ने.
उन्हें एक कागज़ के टुकड़े और कागज़ के ही बने रुपये में अंतर समझ में आता है, क्योंकि वो गवर्नमेंट एप्रूव्ड है.
भाई साहब!
क्या मंदिर में लगे पत्थर की क्वालिटी और सड़क पर पड़े पत्थर की क्वालिटी में आपको कुछ भी अंतर नज़र नहीं आता? आप कभी “मंदिर” गए भी हैं, “जबरदस्ती” ही सही.
रुपये के नोट भी हमें कहाँ अच्छी तरह परखने आते हैं, तभी तो जाली नोट आराम से एक बार तो क्या कई बार कई हाथों का “सफर” कर लेते हैं.
भाई साहब: (कुछ सोचते हुवे)
आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?
उत्तर:
भाई साहब, आप बड़े हो.
पर वो “पत्थर” जो मंदिर में लगा हैं, वो “लाखों” लोगों से “एप्रूव्ड” है.
लोग “पूजा” ही नहीं करते, प्रसाद भी “चढ़ाते” हैं क्योंकि उनके मन के भाव “ऊँचे” हैं.
“(ऊँचा” आदमी ही “ऊँची” “चढ़ाई” करता है).
यदि पोस्ट में लिखी बात का “रहस्य” समझ में ना आया हो, तो इसे चार-पांच बार पढ़ो पर हर बार पढ़ने के बाद कुछ “चिंतन” जरूर करो.