अपना दर्पण : अपना बिम्ब :
ग्यारहवां संस्करण (1997)
कुछ संशोधन की आवश्यकता, ताकि जैनी जिनागम से भटके नहीं:
पृष्ठ 101 पर लिखा है:
“साधना” का आदि (प्रारम्भ) बिंदु है केवल ज्ञान-केवल दर्शन
और
अंतिम बिंदु है केवल ज्ञान-केवल दर्शन.
आदि बिंदु और अंतिम बिंदु के बीच कोई “दूरी “नहीं है.
प्रश्न:
1. यदि “आदि बिंदु” और “अंतिम बिंदु” के बीच कोई “दूरी” ही नहीं है तो दोनों में फर्क क्या है?
2. जब दोनों “वही” हैं, तो दोनों को अलग अलग नाम से कहने की क्या आवश्यकता है?
3. क्या हम कह सकेंगें कि दोनों बिंदु एक ही है?
4. क्या साधना “शुरू” करने के “साथ” ही उसका “अंतिम” चरण आ जाता है?
पृष्ठ 102 पर लिखा है:
अनेक बार प्रश्न आता है-यह पांचवा आरा है, दु:षम काल है. क्या आज भी “केवल ज्ञान” हो सकता है?
केवल दर्शन हो सकता है?
“क्यों नहीं हो सकता?”
(इस प्रश्न पर ही बड़ा प्रश्न चिन्ह है).
यदि “अभ्यास” करें तो आज भी केवल ज्ञान और केवल दर्शन हो सकता है.
“इसी क्षण” हो सकता है,
यदि मोह को बीच में ना आने दें…..”
स्पष्टीकरण :
केवल ज्ञान एक “घटना” है ना कि एक “मार्ग.” उसे प्राप्त करने के लिए “मार्ग” बताया जा सकता है पर प्राप्त कब होगा वो मात्र और मात्र “केवली” ही बता सकते हैं.
क्या भगवान महावीर की साधना का आदि बिंदु और अंतिम बिंदु एक ही था?
उत्तर है : नहीं था.
क्या दीक्षा लेने के समय उनमें किसी के प्रति “मोह” था?
उत्तर है : उन्हें किसी पर भी “मोह” नहीं था.
फिर भी दुष्कर कर्मों के कारण उन्हें “केवल ज्ञान” प्राप्त करने में 12.5 वर्ष लगे.
यदि उसी क्षण केवल ज्ञान प्राप्त हो सकता हो जब “साधना” की शुरुआत की जाए तो इस दु:षमकाल में भी आज लाखों की संख्या में “केवलज्ञानी” होते.
“ध्यान-योग” के हज़ारों शिविर आजकल हर साल लगते हैं. क्या उनमें कुछ अपूर्णता है जिससे “केवलज्ञान” प्राप्त नहीं हो रहा?
“ध्यान साधना” से यदि इस काल में भी केवल ज्ञान प्राप्त हो सकता हो तो फिर “एक” को भी क्यों नहीं हुआ? क्या इसका मतलब ये निकालें की वर्तमान में जो “ध्यान पद्धति” चलायी जा रही है, उसमें “मूल” में ही कहीं
भयंकर भूल है.
विशेष:
“धर्म-ध्यान” आज भी होता है पर “शुक्ल-ध्यान” (केवल ज्ञान प्रकट करने वाला) तक पहुंचा नहीं जा सकता – ये दु:षम काल का प्रभाव है. फिर भी हम “मोक्ष” के “अंतिम किनारे” से एकदम पास तक तो इसी जन्म में पहुँच ही सकते है. ये ही हमारे लिए बहुत लाभकारी है.