विशाल समुद्र को बताने के लिए हम मात्र SEA शब्द का प्रयोग करते हैं. यदि ये “शब्द” नहीं होता, तो हम सोच सकते हैं कि हमें कितना explain करना पड़ता. समुद्र के पास खड़े होकर भी पूरा समुद्र हमें अपनी आँखों से नहीं दीखता और ना ही देख सकेंगे. इसलिए जो लोग मात्र “देखी” हुई बात पर ही विश्वास करना चाहते हैं, वो लोग उन “अदृश्य” बातों को जान नहीं पाएंगे जो जैन धर्म -शास्त्रों में सुलभ (easily available) है.
जैन ग्रन्थ प्राकृत और संस्कृत में लिखे गए हैं और ये दोनों भाषाएँ हम सीखना नहीं चाहते. मतलब जितने भी शास्त्र संग्रहित (collection) किये गए हैं और किये जा रहे हैं, उनकी कितनी उपयोगिता (utility) रह पाएगी, उस पर ही बड़ा प्रश्न चिन्ह (question mark) है.
जिस प्रकार सागर के विस्तार को “शब्दों” में नहीं बताया जा सकता कि उसमें पानी की बूँदें कितनी है (पानी की एक बूँद में 36,450 चलते फिरते जीव कहे गए हैं (माइक्रोस्कोप से भी देखे गए हैं) और जो माइक्रोस्कोप से भीना दिख पाएं, वो असंख्य (uncountable) हैं.
“नवकार” की महिमा “शब्दों” में नहीं बताई जा सकती फिर भी हम हमारी कोशिश करते ही है. मनुष्य का स्वभाव ही नयी नयी चीजों का “आनंद” लेना है. इसलिए नए नए तरीके और सुविधाएं खोजी जाती है, Life को interesting बनाने के लिए.
पहले कुछ प्रश्न खुद से ही :
१. क्या हम रोज नवकार गुणते हैं?
२. कितने सालों से गुणते हैं?
३. क्या नवकार गुणना हमारी “आदत” जैसा है?
४. क्या हमें कभी लगा कि नवकार से हम वास्तव में पांच परमेष्ठी के आगे “झुककर” नमस्कार कर रहे हैं?
५. क्या हमें कभी लगा कि हमारा “नमस्कार” “अरिहंतों” तक “पहुंचा” है?
६. क्या हमें कभी लगा कि हमने “नमस्कार” किया और उन्होंने “आशीर्वाद” दिया है?
(पहले तीन प्रश्नों का जवाब हम तुरंत दे सकते हैं पर बाद के तीन प्रश्नों का जवाब हम “गहरे ध्यान” में जाने के बाद ही “हाँ” में दे सकेंगे).
“ध्यान” के लिए हरदम “आँखें” बंद करने की जरूरत नहीं होती, कभी (ज्यादातर) खुली आँखे ही आँखें और ज्यादा खोल देती हैं – यदि वास्तव में “जाग्रत” होना है तो.