नवकार गुणने से पाप का क्षय कैसे होता है?
“नमो अरिहंताणं” पद बोलने के साथ ही “पुण्य” प्रकाशित होने लगता है.
जहाँ “पुण्य” प्रकट होता हो तो फिर “पाप” कैसे टिकेगा?
जहाँ “सूर्य” उग गया हो, फिर “अंधकार” कैसे रहेगा?
एक “भिखारी” “मंदिर” के बाहर भीख मांगने बैठता है,
परन्तु वास्तव में इतना “अभागा” होता है,
कि कभी “मंदिर” के अंदर नहीं जाता,
“दर्शन” करना तो बहुत “दूर” की बात है.
क्या कभी “भिखारी” को नवकार गिनते देखा है?
उत्तर है : नहीं.
“भिखारी” नवकार क्यों नहीं बोलता?
उत्तर: क्योंकि उसे आता नहीं, पुण्य का इतना उदय नहीं हुआ कि “नवकार” क्या है, इसके बारे में जान भी सके!
ये तो हुई “भिखारी” के “दुर्भाग्य” की बात!
पर उन्हें क्या कहा जाए :
जिन्होंने जैन परिवार में जन्म लिया, संस्कारों से “नवकार” सीखा भी,
पर अब कभी नवकार “गुनते” नहीं!
मतलब प्रकट हुवे पुण्य को नकारने का दुःसाहस कर रहे है!
प्रश्न: परन्तु हम वर्षों से नवकार गुण रहे हैं, इसका “फल” कभी नज़र नहीं आया.
उत्तर: जो अच्छा होता है, उस पर हमारी नज़र उतनी नहीं जाती, जितनी ख़राब पर जाती है.
सफ़ेद शर्ट पहने हुवे पर मात्र एक काला दाग हो, तो हमें शर्ट की पूरी सफेदी ना दिख कर वो काला दाग ही दीखता है.
घर के सभी सदस्य नवकार गुणें और आपत्तियां आती रहें, हो ही नहीं सकता,
यदि पूरी श्रद्धा नवकार पर है तो.