पहले नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप 1-9पढ़ें.
नवकार महामंत्र के पांच पदों में से सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी है : अरिहंत!
“सिद्ध” हम पर कोई उपकार नहीं कर पाते क्योंकि वो नया कर्म नहीं करते.
हां, उस “सिद्ध” का हम पर जरूर उपकार है, जिसके कारण हम “निगोद” से बाहर निकले हैं.
(जब कोई जीव “मोक्ष” पाता है, तब एक दूसरा जीव – जो निगोद में होता है, वो निगोद से बाहर निकलता है).
आत्मा जब निगोद ( एक ऐसा शरीर जो 17.5 बार जन्म-मरण; मनुष्य के मात्र एक बार श्वास लेने और छोड़ने में जितना समय लगता है, उतने में लेता है ) में होती है, तब बार बार जन्म-मरण करती है- बार बार मरने के कारण ही हमारी आत्मा में भी “मरने” का भय सबसे ज्यादा है, ऐसा पूर्व भव के संस्कार के कारण है.
“सिद्ध” होना हर “भव्य-आत्मा” का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है.
जितने भी “साधू” दीक्षा लेते हैं, वो “सिद्ध” होने के लिए ही लेते हैं.
परंपरा से भगवान महावीर का शासन “आचार्यों” के कारण चल रहा है.
आचार्य वो हैं, जो संघ का सञ्चालन करते हैं.
वो “सूरिमंत्र” का जाप – साधना करते हैं.
“सूरिमंत्र” की पांच पीठ हैं.
१. भगवती सरस्वती
२. भगवती त्रिभुवनस्वामिनी
३. महालक्ष्मी
४. गणीपिटक यक्ष ( श्री गणेश )
५. गौतम स्वामी
और इन सबके ऊपर हैं:श्री चन्द्रप्रभु स्वामी!
विशेष: –
किसी भी तीर्थंकर के शासन में “सूरिमंत्र” में किसी भी “गणधर” का स्थान नहीं होता. परन्तु भगवान महावीर ने स्वयं श्री गौतम स्वामी के “गुणों” के कारण उन्हें “सूरिमंत्र” में स्थापित किया है.
गणीपिटक यक्ष श्री गणेश ही हैं जिनका प्राकृत भाषा में गणपति के स्थान पर “गणीपिटक” नाम है.
सूरिमंत्र अधिष्ठित जैन मंदिर वर्तमान में रांदेर गाँव, सूरत में है जिसकी प्रतिष्ठा श्री यशोवर्मसुरीजी ने की है. ये श्री महालक्ष्मी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है. इसी मंदिर से पहले अति चमत्कारी श्री मणिभद्रवीर का स्थान है जहाँ हर गुरूवार मेला जैसा लगता है.
स्वयं श्री माणिभद्र वीर नवकार महामंत्र का जाप करते हैं.
आगे नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 11पढ़ें.