पहले नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप 1-7 पढ़ें.
पूर्वभूमिका:-
“नमुत्थुणं अरिहंताणं” यानि अरिहंतों को नमस्कार!
“नमो अरिहंताणं” – यानि अरिहंतों को नमस्कार!
मतलब दोनों का एक ही है.
दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बिना मानव जीवन की कुछ भी उपयोगिता नहीं है.
जैन धर्म को जिन्होंने अच्छी तरह (या बिलकुल भी) नहीं समझा है, वो “चारित्र” का मतलब “दीक्षा” ही मानते हैं.
jainmantras.com की अन्य पोस्ट्स में ये साफ़ बताया गया है कि किस प्रकार एक “श्रावक” या “श्राविका” को लगभग वो ही सूत्र और व्यवस्था दी गयी है, जो साधू और साध्वी को प्राप्त है.
लोगस्स को साधू भी गुणते हैं , श्रावक भी पढ़ते हैं, दोनों उसका काउसग्ग भी करते हैं और फिर प्रकट लोगस्स भी बोलते हैं.
“दर्शन-विशुद्धि” (जिन धर्म में श्रद्धा बढ़ाने) के लिए लोगस्स सूत्र का सबसे ज्यादा उपयोग होता है.
लोगस्स में हैं 24 जिनेश्वरों की नाम से स्तुति.
“अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली”
यानि बार बार सारा केंद्र बिंदु नमो अरिहंताणं पर आता हैं.“घूमकर” वापस आये नवकार पर!
अरिहंत केवली हैं.
सारे ज्ञान को जानते हैं.
सिर्फ जानते हैं नहीं, उत्कृष्ट रूप से बताना आता हैं और बताते भी हैं. .
तभी जीव “सम्बोधि” पाते हैं.
“नवकार” मूल मंत्र है इसलिए दिखने में छोटा है परन्तु उसमें जैन धर्म का “सारा निचोड़” आ गया है.
“लोगस्स” के अंत में “सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु” पद आता है,
“नवकार” के अंत में “सव्वपावप्पणासणो” पद आता हैं.
दोनों का “रिजल्ट” तो “सिद्धि” प्राप्त करना ही है.
जो लोग वर्षों से नवकार और लोगस्स गुण रहे हैं, किन्तु उन्हें “कुछ” remarkable results नहीं दिखा फिर भी “अब” “आदतवश” गुण रहे हैं, तो उसका “मूल कारण” ये हैं कि उनमें “मोक्ष” जाने की जरा भी इच्छा नहीं हैं– दोनों सूत्र – नवकार ओर लोगस्स मोक्ष की ओर “आगे” बढ़ने की बात करते हैं, ले जाने की बात भी करते हैं, पर “साधक” के इरादे इतने “पक्के” हैं कि जाने को तैयार ही नहीं – फिर बोलते हैं कि मुझे तो अभी तक कुछ “फर्क” नहीं पड़ा.
मानो बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखा दिया, रिपोर्ट्स भी जो कही, वो निकलवा ली, दवा की पर्ची भी आ गयी. अरे! दवा भी आ गयी और अब भाई साब बोलते हैं कि मुझे तो दवा लेनी ही नहीं हैं! अब इसका क्या इलाज होगा!
आगे नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 9पढ़ें.