पूर्वभूमिका :
सभी ने पढ़ा और सुना होगा की हमारी “संस्कृत” भाषा ही सभी “भाषाओं” की जननी (माता) है, परन्तु दिल से इसे माना नहीं है.
जितने भी “महापुरुष” हुवे, हैं, और होंगे वे सभी “माता सरस्वती” से “संस्कृत” में ही बातचीत करते हैं.
“संस्कृत” से ही कुछ बहुत शानदार शब्द निकले हैं : कृत, सुकृत, संस्कार, संस्कृति, सांस्कृत, इत्यादि (मेरी “मंद बुद्धि” इससे आगे सोच नहीं पाती).
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने “मातृका” का बड़ी विस्तार से वर्णन किया है.
“मातृका” यानि “अ से लेकर ह” तक के “अक्षर”
“मातृका” वर्णन में “अ” से लेकर “ह” तक सभी अक्षरों (स्वर और व्यंजन दोनों) के “प्रभाव” का वर्णन आता है.
अर्थात शब्द जो बनते हैं वो अक्षरों के “जोड़” से बनते हैं.
भरत-क्षेत्र में बात हरदम “जोड़ने” की ही हुई है, “तोड़ने” की कभी नहीं हुई.
उदाहरण: हमारा “संयुक्त” हिन्दू परिवार!
(आज ये अद्भुत पारिवारिक व्यवस्था अपनी अंतिम “साँसें” ले रही है. अमेरिका में यदि पति और पत्नी 10 वर्ष भी साथ रहे तो बहुत बड़ी बात है. और हिन्दू संस्कृति में जहाँ “Divorce” को स्थान भी नहीं था, आज सुनकर कोई आश्चर्य नहीं होता. इतनी “प्रगति” हमने “Developing Country” के नाम पर कर ली है).
लगभग हर जैन मंदिर में “सिद्धचक्र” का बड़ा पट्ट जरूर होता हैं. किसी किसी मंदिर में तो बड़े ही स्पष्ट रूप से उसका एक एक अक्षर और मंत्र पढ़ा जा सकता हैं.
कभी “सिद्धचक्र” के पट्ट वाले मंदिर के “दर्शन” करने जाएँ तो १० मिनट “सिद्धचक्र” के पट्ट के पास रुकें. गौर से देखेंगे तो पता पड़ेगा कि उसमें “अ से लेकर अ:” लिखा मिलेगा और फिर अन्य “व्यंजन” भी लिखे मिलेंगे.
पर हमारी तो आदत ये है कि हम बोल कर निकलते हैं – मैं मंदिर “जाकर” आ रहा हूँ. मतलब यूँ गया और यूँ आया.
हमारे मुँह से ये बात नहीं निकलती कि – मैं मंदिर “दर्शन” करने “जा रहा हूँ.” (वापस कब आऊंगा, ये बोलने की जरूरत ही नहीं होती).
आगे पढ़ें: भक्तामर और उवसग्गहरं स्तोत्र में “मातृका” प्रयोग-2