पूर्वभूमिका : भक्तामर और उवसग्गहरं स्तोत्र में “मातृका” प्रयोग-1 पहले पढ़ें.
कलिकालसर्वज्ञ सरस्वतीपुत्र जिनशासन के महान प्रभावक श्री हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में हर “अक्षर” (मातृका) की शक्ति का वर्णन किया है.
जैसे “अ” मृत्यनाशक है.
अकारम् वृत्तासनम् गजवाहनम्
हेमवर्ण कुंकुमगन्धं लवण स्वादूं
जम्बूद्वीप विस्तीर्णं
चतुर्मुख षष्टबाहुं
कृष्णलोचनम् जटा मुकुटधारिणम्
सितवर्ण भौक्तिकामरणमतीव
बलिनम् गम्भीरं
पुंलिलिङ्गम् ध्यायामि ||
अर्थात – गोलाकार आसन पर विराजमान, हाथी वाहन, सुनहरा वर्ण, कुमकुम गंध, नमक जैसा स्वाद, जम्बूद्वीप के समान विस्तृत, चार मुख, आठ भुजा, काले नेत्र, जटा और मुकुट धारी, सफ़ेद मोतियों के आभूषण के धारक, अत्यंत बलवान, गंभीर और पुल्लिंग – ऐसे “अ”कार का मैं ध्यान करता हूँ.
ये है मात्र “अ” का वर्णन!
कभी हम सोच भी पाये हैं? और जानने का “कष्ट” उठाना चाहेंगे?
मातृका से जो बीजाक्षर बनते हैं, उनके “रहस्य” को
मात्र “साधक” ही जान सकता है, “शब्दों” में कितना भी अच्छा वर्णन क्यों ना करो, “विश्वास” नहीं हो पायेगा.
कितनी सूक्ष्म और विशाल हमारी जैन परंपरा है!
आज हमें जो विरासत में मिला है, वो और कहीं नहीं मिल सकता.
जैन धर्म मात्र “ज्ञान” प्राप्ति की बात करता है, प्रभु भक्ति तो “एक माध्यम” है.
भगवान महावीर ने “श्री भगवती सूत्र” में क्या दिया है – ज्ञान का “खजाना!”
मात्र इसी एक सूत्र में भगवान ने गौतम स्वामी के 36,000 प्रश्नों के उत्तर दिए हैं.
एक Ph D Gold Medalist की Thesis भी इसके आगे कुछ नहीं है. किसी को विश्वास ना हो तो कभी “गुरु महाराज” से “भगवती सूत्र” हाथ में लेकर देखे.
आप इसे हाथ में लेकर “सिर” पर लगा लेंगे पर “सिर” में “घुसा” नहीं सकेंगे. स्वयं एक साधू को भी इसको पढ़ने की आज्ञा तभी हैं जब उसने संयम जीवन के 20 वर्ष पूरे कर लिए हों.
हम जैनों को सारे के सारे ग्रन्थ सुलभ हैं,
चारों और “ज्ञान” फैला हुआ है,
कोई “लेने” वाला चाहिए.