पूर्वभूमिका: भक्तामर और उवसग्गहरं स्तोत्र में “मातृका” प्रयोग-1 & 2 पहले पढ़ें.
हजारों ऐसे बीज मंत्र हैं जो दो दो अक्षरों से लेकर सात सात अक्षरों के “संयोग” से बनते हैं.
सात सात अक्षर एक साथ और अक्षर गिना जाता है मात्र “एक”!
मानो “सभी” एक ही संयुक्त हिन्दू परिवार के हों और इस प्रकार जुड़ें हों कि “ब्रह्मा” भी उसे ना तोड़ पाये.
कारण?
स्वयं “ब्रह्मा” शब्द में “चार” अक्षर हैं, परन्तु “अक्षर” दो ही गिने जाते हैं.
यदि “ब्रह्मा” शब्द में से “जोड़ाक्षर” हटा दिए जाएँ
तो “ब्रह्मा” को शब्द से हम जान ही नहीं पाएंगे
और जब हम “शब्द” को ही नहीं जानेंगे
तो “ब्रह्मा” को पहचानेंगे कैसे?
किसी को हम पहचानते तो उसके “नाम” से ही हैं!
इसी प्रकार हमें गुरु परंपरा से “अरिहंत” शब्द ना मिला होता, तो क्या हम जान पाते कि “अरिहंत” कौन हैं और उनका हमारे ऊपर कितना उपकार हैं!
अरिहंत का बीजाक्षर हमें दिया गया हैं : अर्हं
इन बीज मन्त्रों की पहचान, अर्थ और प्रभाव मात्र स्वाध्याय (साधना) और गुरु परंपरा से ही प्राप्त हो सकता हैं. कुछ “स्तोत्रों” में “बीज मंत्र” “गुप्त” रूप से दिए हुए हैं. यन्त्र कैसे बनाना हैं, उसकी विधि भी दी हुई हैं, सिर्फ “पात्रता” होनी चाहिए.
दुर्भाग्य से हमने “प्राकृत और संस्कृत” दोनों भाषाओं को भूला दिया है. ये हमारी सबसे बड़ी भूल है. आज कहीं कहीं तीर्थस्थानों में “दुर्लभ ग्रंथों” को संजोकर रखने की कोशिश की जा रही हैं, पर जब कोई “भाषा” ही नहीं समझेगा तो उन ग्रंथों की क्या उपयोगिता रहेगी, ये “चिंतन” का नहीं, “चिंता” का विषय हैं.