हमारी “सोच” ही बताती है कि हमारे पुण्य का उदय है या पाप का!

“शरीर” में कुछ दर्द हो और
यदि दिन की शुरुआत “भगवान” का नाम ना लेकर
“काम वाली बाई आज आएगी या नहीं” यहाँ से शुरू होती हो,
तो समझ लेना कि “पाप” का उदय हुआ है,
अन्यथा सबसे पहले तो भगवान का नाम ही लिया हुआ होता,
दर्द का “विचार” करने के लिए तो पूरा दिन पड़ा ही है.
(दिन में फिर भगवान का नाम लेने की फुर्सत थोड़ी मिलेगी)?

 

“नकारात्मक (नेगेटिव) विचार” ये बताता है कि हमारा पाप उदय में आया हुआ है.
और तो और यदि आप जैसा ख़राब सोच रहे हैं, वैसा ही ख़राब काम हो रहा है,
तो तो फिर पक्का है कि “पाप” ही उदय में आया हुआ है. 🙂

कुछ लोग ऐसा बोलने में भी अपनी “शान” समझते हैं कि
देखो! मैंने कहा था ना कि ये काम नहीं होगा, और ये काम हुआ भी नहीं.
ऐसे लोगों से दूर ही रहें.
क्योंकि उन्हें अपनी “ख़राब बात” सच करने की “सिद्धि” हासिल है. 🙂
और अच्छी बात उनके मुंह से निकलती नहीं.
(इसका क्या अर्थ है, ये जरा समझने की चेष्टा करें).

 

किसी का भला करने का विचार भी आता हो (भले ही कर ना पाते हों),
तो भी समझना की पुण्य का उदय होना शुरू हो गया है.

शब्द-रहस्य:-

1. यदि कोई ये कहे कि भगवान ऐसी नालायक संतान किसी को ना दे,
तो ऐसा कहकर वो किसी का भला नहीं सोचता, हां, ये सच है कि वो किसी का बुरा भी नहीं सोचता.
परन्तु
२. यदि कोई ये कहे कि भगवान ऐसी लायक संतान सभी को दे,
तो ऐसा कहकर वो सबका भला ही सोचता है,
किसी का बुरा सोचना का तो उसका विचार तक नहीं है.

(ऊपर वाली बात को दो-तीन बार पढ़े,
तो बात अच्छी तरह समझ में आएगी कि हमें कैसे “शब्द” मुंह से निकालने चाहिए).

 

“पुरुष” का अर्थ
कमाने के लिए तैयार होना, “पुरुषार्थ” करने की “तैयारी” को बताता है.
सारी मुश्किलों के बाद भी कमा लेना, “पुरुषार्थ” को बताता है.
फिर उस कमाई से “दान” देना, “सच्चे पुरुषार्थ” को बताता है.
यदि ये ना कर पाया,
उसके “पुरुष” होने का कोई “अर्थ” नहीं है.

पैसा कमा कर खुद ही “भोग” लिया, तो फिर कौनसा “काम” किया?
(ज्यादातर किस्सों में तो वो भोग ही नहीं पाता,
क्योंकि उसका “टिकट” तो बिना “रिजर्वेशन” के ही “कट” जाना है – कई बार तो टिकट तत्काल में भी कन्फर्म हो जाती है). 🙂

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