प्रश्न 5 :
नवकार में मात्र “पाप” नष्ट करने की बात है. क्या “पापी” ही नवकार गुणें?
उत्तर:
१. “पाप” करते समय कभी भी कोई इस बात का “विचार” नहीं करता कि
“मैं पाप कर रहा हूँ.”
उसका “फल” क्या होगा, इसकी तो “चिंता” वो “प्रत्यक्ष” दिखने वाले फल पर ही करता है.
उदाहरण :
१. एक “चोर” जो रोज चोरी करने का प्रयास करता है और कई बार उसमें सफल भी होता है,
तो भीतर ही भीतर “खुश” भी होता है. चोरी करनी पड़ रही है या उसका उसको चोरी करने का पश्चात्ताप है, वो बातें तो वो पकड़े जाने पर ही बोलता है.
प्रश्न 6 :
किये हुए “पाप” नष्ट कैसे हो सकते हैं? “जैन धर्म” तो कर्म भोगना पड़ेगा, ऐसी बात करता है.
उत्तर:
यदि किये हुए “पाप” नष्ट नहीं हो सकते तो फिर “धर्म” की बात ही करने की “ज्यादा” जरूरत नहीं है.
“नवकार” “पाप” नष्ट करता है, और जो “पाप” नष्ट नहीं हो सकते, उन्हें “भोगने” की “शक्ति” प्रदान करता है.
आपने देखा होगा की कई कैंसर पीड़ित व्यक्ति भी “रोग” को ऐसे भोग लेते हैं,
मानो सर्दी-बुखार जैसा रोग हो.
“भगवान महावीर” के कान मैं कीले ठोके गए. वो कर्म उन्होंने भोग भी लिया.
पर वो कर्म उस समय उदय मैं आया जब उनके “शरीर” का “बल” अतुल था, इस कारण उनके “प्राण” नहीं गए.
जबकि जिस जन्म में उन्होंने अन्य के कान में “सीसा” डलवाया था, वो तो “मर” ही गया था.
विशेष:
भगवान महावीर के उस कर्म को, जो उन्होंने “त्रिपृष्ठ वासुदेव” के भव में किया था, उसे हम आज भी “याद” करते हैं. इसका मतलब जो “कर्म” किया था, उसे उन्होंने “भोग” भी लिए, फिर भी उसकी “राख” (अवशेष) आज भी मौजूद है. और ये “स्मृति” कायम रहेगी.
इसलिए कर्म (जैसे चोरी, धोखाधड़ी इत्यादि) करते समय ये “ध्यान” रखना चाहिए कि उसे भोगने के बाद भी “बदनामी” तो रहेगी ही चाहे जेल कि सजा पूरी हो चुकी हो.
आगे के लिए पढ़ें:
नवकार चिंतन : भाग 3
फोटो:
भगवान महावीर