धर्म क्या है? भाग-3

पहले पढ़ें: धर्म क्या है?-भाग-2 (दिए गए लिंक पर क्लिक करें).

राज्य के राजपुरोहित होते हुवे भी उनका अगला प्रश्न था : “धर्म” क्या है?……??…..??

सारे वेदों का उच्चतम ज्ञान रखने वाले राज्य के राजपुरोहित को पता नहीं था कि “धर्म” क्या है?
जिस प्रकार गौतम स्वामीजी को पता नहीं था कि क्या “आत्मा” है?
फिर भी वेदों के जानकार होने के कारण खूब शिष्य बना लिए थे.
कहने का मतलब ये है कि “शिष्यों और अनुयायिओं की ज्यादा संख्या” सच्चे धर्म को अपनाने का सर्टिफिकेट नहीं है. यदि “संख्या” के आधार पर ये दावा मान्य किया जाये तो क्रिश्चियन और मुस्लिम धर्म को जैन धर्म से ऊँचा मानना पड़ेगा. इसी प्रकार जिस सम्प्रदाय की संख्या बड़ी हो, वो “सही” ही है, ये सिद्ध नहीं होता.

 

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि श्री हरिभद्र सूरी निम्न श्लोक का अर्थ जानना चाहते थे.
    “चक्किदुगं हरी पणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की
    केसवचक्की केसवदु, चक्की केसीय चक्कीय ||
प्रतिज्ञा ली हुई थी उसका  शिष्य  बनने  की जो कोई भी श्लोक बोले, उस श्लोक का अर्थ उन्हें समझ में ना आये और फिर वो उस श्लोक का अर्थ बता दे.

हरिभद्र की शिष्य बनने की तैयारी थी ही इसलिए तुरंत दीक्षा ले ली. परन्तु मन की शंका पूरी होने के बाद! उन्होंने गुरु से कहा : मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा? गुरु ने कहा : जिस साध्वीजी से तुमने  श्लोक सुना और फिर उन्होंने तुम्हे यहाँ तक पहुँचाया वो  मेरे गुरु की सांसारिक बहिन है. इसलिए तुम्हारी “धर्म” माता है. जैन परंपरा में कोई पुरुष किसी दीक्षित स्त्री का शिष्य नहीं बनता.

 

गुरु ने इस श्लोक का अर्थ बताया :
पहले दो चक्रवर्ती हुवे, फिर पांच वासुदेव,
फिर पांच चक्रवर्ती,
फिर एक वासुदेव और एक चक्रवर्ती,
फिर एक केशव और एक चक्रवर्ती,
उसके बाद एक केशव और दो चक्रवर्ती,
फिर केशव और सबसे बाद में चक्रवर्ती हुवे.

 

श्लोक का अर्थ जानकर  पाठकों को “चक्कर” आ रहे होंगे. 🙂

पाठकों के सामने एक प्रश्न :
इस श्लोक के अर्थ को जानने से श्री हरिभद्र को क्या मिला?

आगे पढ़ें: धर्म क्या है?-भाग-4

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